________________ एतद्विद्यः एतत्समाचारः सुबहु पापं कर्म कलिकलुषं समर्जयन् विहरति / ततः तस्यैकादे राष्ट्रकूटस्य अन्यदा कदाचित् शरीरे युगपदेव षोड़श रोगातंकाः प्रादुर्भूताः तद्यथा श्वासः 1 कासः 2 ज्वरः 3 दाहः 4 कुक्षिशूलम् 5 भगन्दरः 6 अर्श: 7 अजीर्णम् 7 दृष्टिमूर्धशूले 9-10 अरोचकः 11 अक्षिवेदना 12 कर्णवेदना 13 कंडू 14 दकोदरः 15 कुष्ठः 16 / . पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। से एक्काई रट्ठकडे-वह एकादि राष्ट्रकूट। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स-विजयवर्द्धमान खेट के। बहूणं-अनेक। राईसर० जाव सत्थवाहाणं-राजा से लेकर सार्थवाह पर्यन्त। अन्नेसिं च-तथा अन्य। बहूणं-अनेक। गामेल्लगपुरिसाणं-ग्रामीण पुरुषों के। बहूसु-बहुत से। कज्जेसु-कार्यों में। कारणेसु य- कारणों- कार्यसाधक हेतुओं में। मंतेसु-मन्त्रों-कर्त्तव्य का निश्चय करने के लिए किए गए गुप्त विचारों में। गुज्झेसु निच्छएसु-गुप्त निश्चयों-निर्णयों में तथा। ववहारेसुव्यवहारों में-विवादों में अथवा व्यवहारिक बातों में। सुणमाणे-सुनता हुआ। भणति-कहता है। न सुणेमि-मैंने नहीं सुना। असुंणमाणे भणति-न सुनता हुआ कहता है। सुणेमि-सुनता हूं। एवं-इसी प्रकार। पस्समाणे-देखता हुआ। भासमाणे-बोलता हुआ। गेण्हमाणे-ग्रहण करता हुआ। जाणमाणेजानता हुआ [ भी विपरीत. ही कहता है।] तते णं-तदनन्तर / से एक्काई रट्ठकूडे-वह एकादि राष्ट्रकूट। एयकम्मे-इस प्रकार के कर्म करने वाला। एयप्पहाणे-इस प्रकार के कर्मों में तत्पर। एयविज्जे-इसी प्रकार की विद्या-विज्ञान वाला। एयसमायारे-इस प्रकार के आचार वाला। सुबहुं-अत्यधिक। कलिकलुसंकलह (दुःख) का कारणीभूत होने से मलिन। पावं कम्मं-पाप कर्म। समजिणमाणे-उपार्जन करता हुआ। विहरति-जीवन व्यतीत कर रहा था। ततेणं-तदनन्तर / तस्स-उस।एगाइयस्स-एकादि ।रट्ठकूडस्सराष्ट्रकूट के। अण्णया कयाइ-किसी अन्य समय। सरीरगंसि-शरीर में। जमगसमगमेव-युगपद्-एक साथ ही। सोलस-सोलह / रोयातंका-रोगातंक-कष्ट साध्य अथवा असाध्य रोग। पाउब्भूया-उत्पन्न हो गए। तंजहा-जैसे कि।सासे-श्वास।कासे-कास।जरे-ज्वर। दाहे-दाह / कुच्छिसूले-उदर-शूल। भगंदरेभगंदर। अरिसे-अर्श-बवासीर / अजीरते-अजीर्ण। दिट्ठी-दृष्टिशूल-नेत्रपीड़ा। मुद्धसूले- मस्तकशूलशिरोवेदनां। अकारए-अरुचि-भोजन की इच्छा का न होना। अच्छिवेयणा-आंख में दर्द होना। कण्णवेयणा-कर्णपीड़ा। कंडू-खुजली। दओदरे-दकोदर, जलोदर-उदर-रोग का भेद विशेष। कोढेकुष्ठरोग। मूलार्थ-तदनन्तर वह राष्ट्रकूट [प्रान्त विशेष का अधिपति ] एकादि विजयवर्द्धमान खेट के अनेक राजा-मांडलिक, ईश्वर-युवराज , तलवर-राजा के कृपापात्र, अथवा जिन्होंने राजा की ओर से उच्च आसन ( पदवी विशेष ) प्राप्त किया हो ऐसे एतत्प्रधानः एतन्निष्ठ इत्यर्थः। "एयविजे"त्ति एषेव विद्या विज्ञानं यस्य स तथा। "एयसमायारे"त्ति एतज्जीतकल्प इत्यर्थः। (वृत्तिकारः) प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [163