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________________ नागरिक लोग, तथा माडंबिक-मडम्ब के अधिपति, कौटुम्बिक-कुटुम्बों के स्वामी श्रेष्ठी और सार्थवाह-सार्थनायक तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के कार्यों में, कारणों में, गुप्तमंत्रों-मंत्रणाओं, निश्चयों और विवादसम्बन्धी निर्णयों अथवा व्यवहारिक बातों में सुनता हुआ कहता है कि मैंने नहीं सुना, नहीं सुनता हुआ कहता है कि मैंने सुना है; इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी यह कहता है कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। तथा इससे विपरीत नहीं देखे, नहीं बोले, नहीं ग्रहण किए, और नहीं जाने हुए के सम्बन्ध में कहता है कि मैंने देखा है, बोला है, ग्रहण किया है तथा जाना है। इस प्रकार के वंचनामय व्यवहार को उसने अपना कर्त्तव्य समझ लिया था। मायाचार करना ही उसके जीवन का प्रधान कार्य था और प्रजा को व्याकुल करना ही उस का विज्ञान था, एवं उसके मत में मनमानी करना ही एक सर्वोत्तम आचरण था। वह एकादि राष्ट्रकूट कलह-दुःख के हेतुभूत अत्यन्त मलिन पापकर्मों का उपार्जन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगातंक- जीवन के लिए अत्यन्त कष्टोत्पादक, कष्टसाध्य अथवा असाध्य रोग उत्पन्न हो गए। जैसे किश्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिमूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तकशूल, अरुचि, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, कंडू-खुजली,जलोदर और कुष्ठरोग। टीका-प्रस्तुत सूत्र में एकादि राष्ट्रकूट के नैतिक जीवन का चित्रण किया गया है। वह विजयवर्द्धमान खेट में रहने वाले मांडलिक, युवराज आदि तथा अन्य ग्रामीण पुरुषों के अनेकविध कार्यों, कारणों, गुप्त-निश्चयों और विवादनिर्णयों अथवा व्यवहारिक बातों की यथारुचि अवहेलना करने में प्रवत्त था, तदनुसार सुने हुए को वह कह देता था कि मैंने नही सुना, और नहीं सुनने पर कहता कि मैंने सुना है, इसी प्रकार देखने, बोलने, ग्रहण करने और जानने पर भी-मैंने नहीं देखा, नहीं बोला, नहीं ग्रहण किया और नहीं जाना तथा न देखने, न बोलने, न ग्रहण करने और न जानने पर कहता कि मैं देखता हूं,बोलता हूं ,ग्रहण करता और जानता हूं। सारांश यह है कि उस की प्रत्येक क्रिया मनमानी और प्रजा के लिए सर्वथा अहितकर थी। .. "राईसर० जाव सत्थवाहाणं-" के "जाव-यावत्" पद से-"तलवरमाडंबियकोडुंबियसत्थवाहाणं-" पाठ का ग्रहण कर लेना। इन पदों का अर्थ पदार्थ में 1. जिसके निकट दो दो योजन तक कोई ग्राम न हो उस प्रदेश को मडम्ब कहते हैं- "मडम्बं च योजनद्वयाभ्यन्तरेऽविद्यमानग्रामादिनिवेशाः सन्निवेशविशेषाः प्रसिद्धाः [वृत्तिकारः]" 164 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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