SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में भी संकोच नहीं करता, यही कारण है कि वह दुःख मिश्रित सुख के लिए अनेक जन्मों में भोगे जाने वाले दुःखों का संग्रह कर लेता है। एकादि नामक राष्ट्रकूट उन्हीं पतित व्यक्तियों में से एक था, वह अपने स्वार्थ की वर्तमान कालीन सुखसामग्री को सन्मुख रखता हुआ अनाथ प्रजा को पीड़ित कर रहा था। और अपने प्रभुत्व के मद में अन्धा होता हुआ हजारों जन्मों में भोगे जाने वाले दुःखों का सामान पैदा कर रहा था। अत: बुद्धिमान् मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह केवल अपनी वर्तमान परिस्थिति का ही ध्यान न करता हुआ अपनी भूत और भावी अवस्था का भी ध्यान रक्खे, जिससे कि जीवन क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास को भी कुछ अवकाश मिल सके। अब सूत्रकार एकादि राष्ट्रकूट की पतित मानसिक वृत्तियों द्वारा उपार्जित कर्मों के फलस्वरूप स्वरूप भयंकर रोगों का वर्णन करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं मूल-तते णं से एक्काई रट्ठकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स .बहूणं राईसर० जाव सत्थवाहाणं अण्णेसिं च बहूणं गामेल्लगपुरिसाणं बहूसु कज्जेसु कारणेसु य मंतेसु गुज्झेसु निच्छएसु य ववहारेसु सुणमाणे भणति न सुणेमि, असुणमाणे भणति सुणेमि, एवं पस्समाणे भासमाणे गेण्हमाणे जाणमाणे। तते णं से एक्काई रट्ठकूडे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविजे, एयसमायारे सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समजिणमाणे विहरति। तते णं तस्स एगाइयस्स रटकूडस्स अण्णया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगातंका पाउब्भूया तंजहासासे 1 कासे 2 ज़रे 3 दाहे 4 कुच्छिसूले 5 भगंदरे 6 अरिसे 7 अजीरते 8 दिट्ठी 9 मुद्धसूले 10 अकारए 11 अच्छिवेयणा 12 कण्णवेयणा 13 कंडू 14 दओदरे 15 कोढ़े 16 / / छाया-ततः स एकादी राष्ट्रकूटो विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य बहूनां राजेश्वर० यावत् सार्थवाहानामन्येषां च बहूनां ग्रामेयकपुरुषाणां बहुषु 'कार्येषु कारणेषु च मंत्रेषु गुह्येषु निश्चयेषु व्यवहारेषु च शृण्वन् भणति न शृणोमि, अशृण्वन् भणति शृणोमि, एवं पश्यन् भाषमाणो गृहन् जानन्। ततः स एकादी राष्ट्रकूटः एतत्कर्मा एतत्प्रधानः 1. 'कज्जेसु' त्ति कार्येषु प्रयोजनेषु अनिष्पन्नेषु, 'कारणेसु' त्ति सिषाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेषु, तत्र मन्त्राः पर्यालोचनानि, गुह्यानि-रहस्यानि, निश्चयाः वस्तुनिर्णयाः, व्यवहाराः विवादास्तेषु विषयेष्विति वृत्तिकारः।। 2. "एयकम्मे" त्ति एतद्-व्यापारः, एतदेव वा काम्यं कमनीयं यस्य स तथा "एयप्पहाणे" त्ति 162 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy