________________ -एक्कसरगा-एकसदृशानि-इन पदों का अर्थ होता है-एक समान, एक जैसे। तात्पर्य यह है कि दुःखविपाक में जितने भी अध्ययन संकलित हैं वे सब एक समान हैं, इसी प्रकार सुखविपाक के दश अध्ययन भी एक जैसे हैं। यहां पर समानता परिणामगामिनी है अर्थात् प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम दुःख और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वर्णित अध्ययनों का अन्तिम परिणाम सुख है। इस दुःख और सुख की वर्णित व्यक्तियों के जीवन में समानता होने से इन को एक समान कहा गया है। अथवा वर्णित व्यक्तियों के आचार में अधिक समानता होने की दृष्टि से भी एक समान-एक जैसे कहे जा सकते हैं। अथवा दस दिनों में इन दस अध्ययनों में वर्णित मृगापुत्र आदि तथा सुबाहुकुमार आदि सभी महापुरुष अन्त में परमसाध्य निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं। इस दृष्टि से भी ये सभी अध्ययन समान कहे गए हैं। विपाकश्रुत के अध्ययनादि क्रम को विशेष रूप से जानने के लिए श्री आचारांग सूत्र का अध्ययन अपेक्षित है। यह बात-सेसं जहा आयारस्स-इन पदों से ध्वनित होती है। अतः जिज्ञासु पाठकों को भी आचारांग सूत्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। सूत्रकार ने-सेसं जहा आयारस्स-यह कह कर जो विपाकश्रुत के शेष वर्णन को आचाराङ्ग सूत्र के समान संसूचित किया है, इस से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि सूत्रकार को आचाराङ्ग सूत्र की विपाकसूत्र के साथ कौन सी समानता अभिमत है, तथा आचारांग सूत्र के कौन से वर्णन के समान विपाकसूत्र का वर्णन समझा जाए। इस सम्बन्ध में आचार्य,अभयदेवसूरि भी मौन हैं / तथापि विद्वानों के साथ विचार करने से हमें जो ज्ञात हो सका है वह पाठकों की सेवा में अर्पित है। इस में कहां तक औचित्य है, यह पाठक स्वयं विचार करें। नन्दीसूत्र आदि सूत्रों में वर्णित श्री उपासकदशाङ्ग आदि सूत्रों के परिचय में श्रुतग्रहण के अनन्तर उपधान तप का वर्णन किया गया है। उपधान के अनेकों अर्थों में से "-उप समीपे धीयते क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम्। अथवा-अङ्गोपाङ्गानां सिद्धान्तानां पठनाराधनार्थमाचाम्लोपवासनिर्विकृत्यादिलक्षणः तपोविशेष उपधानम्।" अर्थात् जिस तप के द्वारा सूत्र आदि की शीघ्र उपस्थिति हो वह तप उपधान तप कहलाता है। तात्पर्य यह है कि तप निर्जरा का सम्पादक होने से ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय तथा क्षयोपशम का कारण बनता है। जिस से सूत्रादि की शीघ्र अवगति हो जाती है तथा साथ में सूत्राध्ययन निर्विघ्नता से समाप्त हो जाता है। अथवा अङ्ग तथा उपाङ्ग सिद्धान्तों के पढ़ने और आराधन करने के लिए आयंबिल, उपवास और निर्विकृति आदि लक्षण वाला तपविशेष-" ये दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, इन्हीं अर्थों की पोषक मान्यता आज भी प्रत्येक सूत्राध्ययन के साथ-साथ या अन्त में की 998 ] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [द्वितीय श्रुतस्कंध