________________ अनेकों अर्थों का परिचायक है, और निगमन शब्द परिणाम, नतीजा इत्यादि अर्थों का बोध कराता है। अब यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत प्रकरण में निक्षेप का कौन सा अर्थ अभिमत है ? हमारे विचारानुसार प्रस्तुत में निक्षेप का-उपसंहार-यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है, निगमन का अर्थ यहां संघटित नहीं हो पाता, क्योंकि प्रस्तुत में निक्षेप पद "-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं दुहविवागाणं बिइयस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि-" इन पदों का संसूचक है। इन पदों का प्रस्तुत द्वितीय अध्ययन में प्रतिपादित कथावृत्तान्त के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तब निगमन पद का अर्थ यहां कैसे संगत हो सकता है ? हां, यदि इन पदों में प्रस्तुत अध्ययन का परिणाम-नतीजा वर्णित होता तो निगमन पद का अर्थ संगत हो सकता था। उपसंहार पद का भी यहां पर-मिला देना- यह अर्थ संगत हो सकेगा, क्योंकि यहां पर सूत्रकार का आशय अध्ययन की समाप्ति पर पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने से है। पूर्वापर सम्बन्ध मिलाने वाले "एवं खलु जम्बू!" इत्यादि पद हैं। इन्हें ग्रहण कर लिया जाए, यह सूचना देने के लिए ही सूत्रकार ने 'निक्खेवो' इस पद का उपन्यास किया है। दूसरे शब्दों में निक्षेप पद का अर्थ "-अध्ययन के पूर्वापर सम्बन्ध को मिलाने वाला समाप्ति-वाक्य-" इन शब्दों के द्वारा किया जा सकता है। रहस्यं तु केवलिगम्यम्। . प्रस्तुत अध्ययन में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख किया गया है जैसे कि-(१) मांसाहार और (2) व्यभिचार / मांसाहार जीव को कितना नीचे गिरा देता है और नरक गति में कैसे कल्पनातीत दुःखों का उपभोग कराता है तथा आध्यात्मिक जीवन का कितना पतन करा देता है, यह उज्झितक कुमार के उदाहरण से भली-भान्ति स्पष्ट हो जाता है। साथ में व्यभिचार से कितनी हानि होती है, उस के आचरण से मर्त्यलोक तथा नरकगति में कितनी यातनाएं सहन करनी पड़ती हैं, यह भी प्रस्तुत अध्ययनगत उज्झितक कुमार के जीवन-वृत्तान्त से भली-भान्ति ज्ञात हो जाता है। सारांश यह है कि जीव का हिंसामय और व्यभिचार-परायण होना कितना भयंकर है इस का दिग्दर्शन कराना ही प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय पुण्य और पाप के स्वरूप तथा उस के फल-विशेष को समझाने का सरल से सरल यदि कोई उपाय है, तो वह आख्यायिकाशैली है। जो विषय समझ में न आ रहा हो, जिसे समझने में बड़ी कठिनता प्रतीत होती हो तो वहां आख्यायिका-शैली का अनुसरण राम-बाण औषधि का काम करता है। आख्यायिका-शैली को ही यह गौरव प्राप्त है कि उस के द्वारा 328 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध