________________ कठिन से कठिन विषय भी सहज में अवगत हो सकता है और सामान्य बुद्धि का मनुष्य भी उसे सुगमतया समझ सकता है। इसी हेतु से प्राचीन आचार्यों ने वस्तुतत्व को समझाने के लिए प्रायः इसी आख्यायिका-शैली का आश्रयण किया है। आख्यान के द्वारा एक बाल-बुद्धि जीव भी वस्तुतत्त्व के रहस्य को समझ लेता है, यह इस में रही हुई स्वाभाविक विलक्षणता है। प्रस्तुत सूत्र में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। कहानी के द्वारा पाठकों को हिंसा के परिणाम तथा व्यभिचार के फल को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया गया है। उज्झितक कुमार की इस कथा से प्रत्येक साधक व्यक्ति को यह शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए कि किसी प्राणी को कभी भी सताना नहीं चाहिए और वेश्या आदि की कुसंगति से दूर रहने का सदा यत्न करना चाहिए। वेश्या की कुसंगति से उज्झितक कुमार को कितना भयंकर कष्ट सहन करना पड़ा था यह उसके उदाहरण से बिल्कुल स्पष्ट ही है। भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है कि__ वेश्यासौ मदनज्वाला, रूपेन्धनविवर्द्धिता। कामिभिर्यत्र यन्ते, यौवनानि धनानि च॥ अर्थात्-वेश्या रूपलावण्य से धधकती हुई कामदेव की ज्वाला है, इस में कामी पुरुष प्रतिदिन अपने यौवन और धन का हवन करके अपने जीवन को नष्ट कर लेते हैं। इस अध्ययन के पढ़ने का सार भी यही है कि इस में कहानी रूप से दी गई अमूल्य शिक्षाओं को जीवन में लाकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने का यथाशक्ति अधिक से अधिक यत्न करना चाहिए, क्योंकि मात्र पढ़ लेने से कुछ लाभ नहीं हुआ करता। . पक्षीगण आकाश में सानन्द विचरने में तभी समर्थ हो सकते हैं जब कि उन के पक्षपंख मजबूत और सही सलामत हों। दोनों में से यदि एक पक्ष-पंख भी दुर्बल या निकम्मा है तो उसका स्वेच्छा-पूर्वक आकाश में विचरण नहीं हो सकता। इसलिए दोनों पक्षों का स्वस्थ और सबल होना उसके आकाश-विहार के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ठीक उसी प्रकार साधक व्यक्ति के लिए ज्ञान और तदनुरूप क्रिया-आचरण दोनों की आवश्यकता है अकेला ज्ञान कुछ भी कर नहीं पाता यदि साथ में क्रिया-आचरण न हो। इसी भान्ति अकेली क्रियाआचरण का भी कुछ मूल्य नहीं जब कि उसके साथ ज्ञान का सहयोग न हो। अतः ज्ञान-पूर्वक किया जाने वाला क्रियानुष्ठान आचरण ही कार्य-साधक हो सकता है। इसीलिए दीर्घदर्शी महर्षियों ने अपनी-अपनी परिभाषा में उक्त सिद्धान्त का -"-ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः-" इत्यादि वचनों द्वारा मुक्त कण्ठ से समर्थन किया है। 1. उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां. यथा खे पक्षीणां गतिः। तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते शाश्वती गतिः॥१॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [329