________________ इन पदों का परिचायक है, अर्थात् भगवान् ने धर्म का उपदेश किया और परिषद्-जनता सुन * कर चली गई। .. "-जेढे जाव रायमग्गं-" यहां का जाव-यावत् पद "-अन्तेवासी गोयमे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए,पोरिसीए-" इत्यादि पदों का परिचायक है। जिन के सम्बन्ध में तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। "-पासति जाव नरनारिसंपरिवुडं-" यहां पठित जाव-यावत् पद - अवओडगबन्धणं उक्कित्तकण्णनासं नेहत्तुप्पियगत्तं-" से ले कर "-कक्करसएहिं हम्ममाणं अणेग-" इन पदों का संसूचक है। इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। "-अद्धहारं जाव पढें-" यहां के जाव-यावत् पद से "-तिसरयं पिणद्धति, पालंबं पिणद्धति, कडिसुत्तयं पिणद्धति-" इत्यादि पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। अर्द्धहार आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है १-अर्द्धहार-जिस में नौ सरी-लड़ी हों उसे अर्द्धहार कहते हैं / २-त्रिसरिकतीन लड़ियों वाले हार को त्रिसरिक कहा जाता है। ३-प्रालम्ब-गले में डालने की एक लम्बी माला के लिए प्रालम्ब शब्द प्रयुक्त होता है। ४-कटिसूत्र-कमर में पहनने की डोरी को कटिसूत्र कहते हैं। - "-चिन्ता तहेव जाव वागरेति-" यहां पठित चिन्ता शब्द का अभिप्राय चतुर्थ अध्ययन में लिखा जा चुका है। तथा-तहेव पद का अभिप्राय द्वितीय अध्याय में लिख दिया गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि प्रस्तुत में मथुरा नगरी का। तथा वहां भगवान् गौतम ने वाणिजग्राम के राजमार्ग पर देखे हुए दृश्य का वृत्तान्त भगवान् महावीर को सुनाया था जब कि यहां मथुरा नगरी के राजमार्ग पर देखे दृश्य का, एवं दृष्ट दृश्य के वर्णन करने वाले पाठ को तथा मथुरा नगरी के राजमार्ग पर अवलोकित व्यक्ति के पूर्वभव पृच्छासम्बन्धी पाठ को संक्षिप्त करने के लिए सूत्रकार ने जाव यावत् पद का आश्रयण किया है। जाव यावत् पद से विवक्षित पाठ निम्नोक्त है -त्ति कट्ट महुराए नगरीए उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गेण्हति 2 त्ता महुराणयरिं मझमझेण जाव पडिदंसेति, समणं भगवं महावीरं वन्दति, नमं-सति 2 त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाते समाणे महुराणयरीए तहेव जाव वेएति। से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि ? जाव पच्चणभवमाणे विहरति?-इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। अन्तर मात्र प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [517