________________ कैसे करनी चाहिए, उन के रसद का प्रबन्ध कहां, कैसे और कितना करके रखना चाहिए, शत्रु से कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (५४)शकटयुद्ध-कला-रथी का युद्ध रथी के साथ कैसे, कहां और कब तक होना चाहिए, रथी को कहां तक युद्धकला से परिचित होना चाहिए, रथ को किन-किन अस्त्र, शस्त्रों से सुसज्जित रखना चाहिए, इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला के द्वारा दी जाती है। (55) गरुड़-युद्ध-कला-सेना की रचना आगे से छोटी, पतली और पीछे से क्रमशः मोटी क्यों रखनी चाहिए, सेना की ऐसा रचना करने से और शत्रुओं पर छापा मारने से क्या तात्कालिक प्रभाव रहता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (56) दृष्टियुद्ध-कला-आंखों से आंखें मिला कर परपक्ष के लोगों को कैसे बलहीन एवं निकम्मे बनाया जा सकता है, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता (57) वाग्-युद्ध-कला-युक्तिवाद, तर्कवाद और बुद्धिवाद की सहायता से परपक्ष के विषय का खण्डन करना और स्वपक्ष का मण्डन करना और भांति-भांति के सामान्य और गूढ़ विषयों पर शास्त्रार्थ करना, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है। (58) मुष्टि-युद्ध कला-हाथों को बान्धकर मुष्टि बना कर और उन के द्वारा नाना प्रकार से विधिपूर्वक घूसामारी खेल.करं परपक्ष को पराजित करना, इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। ___(59) बाहु-युद्ध-कला-इस में मुष्टि के स्थान पर भुजाओं से युद्ध करने की शिक्षा दी जाती है। (60) दण्ड-युद्ध-कला-इस कला में दण्डों के द्वारा युद्ध करना सिखाया जाता है। कैसे और कितने लम्बे दण्ड होने चाहिएं और किस ढंग से चलाए जाने चाहिएं, ताकि शत्रु से अपने को सुरक्षितं रखा जा सके, इत्यादि बातें भी इस कला से सिखाई जाती हैं। - (61) शास्त्र-युद्धकला-इस कला के द्वारा पठित शास्त्रीय ज्ञान को खण्डनमण्डन के रूप में बोल कर या लिख कर प्रकट करने की युक्तियां सिखाई जाती हैं। (६२)सर्प-मर्दन-कला-सर्प के काटे हुओं की संजीवनी औषधियां कौन-कौन सी हैं, वे कौन सी जड़ी बूटियां हैं जिनके सूंघने या सुंघा देने मात्र से भयंकर से भयंकर ज़हरीले सर्यों का विष दूर किया जा सकता है, सो को कील कर कैसे रखा जा सकता है इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं। (63) भूतादि-मर्दन-कला-भूतादि क्या हैं, ये मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं, प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [235