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________________ २-दूसरों की गुप्त बातों को प्रकट करना। अथवा एकान्त में बैठ कर कुछ गुप्त .. परामर्श करने वाले व्यक्तियों पर राजद्रोह आदि का दोष लगा देना। ३-एकान्त में अपनी पत्नी द्वारा कही हुई किसी गोपनीय-प्रकट न करने योग्य बात को दूसरों के सामने प्रकट कर देना। अथवा पत्नी, मित्र आदि के साथ विश्वासघात करना। ४-किसी को झूठा उपदेश या खोटी सलाह देना। तात्पर्य यह है कि लोक तथा परलोक सम्बन्धी उन्नति के विषय में किसी उत्पन्न सन्देह को दूर करने के लिए कोई किसी से पूछे तो उसे अधर्ममूलक जघन्य कार्य करने का कभी उपदेश नहीं देना चाहिए। प्रत्युत जीवन के निर्माण एंव कल्याण की बातें ही बतानी चाहिएं। ५-झूठे लेख लिखना, जालसाजी करना, तात्पर्य यह है कि दूसरे की मोहर आदि लगा देना या हाथ की सफाई से दूसरों के अक्षरों के तुल्य उस ढंग से अक्षर बना देने आदि प्रकारों से कूटलेख नहीं लिखने चाहिएं। ३-अस्तेयाणुव्रत-इसे स्थूलअदत्तादानविरमणव्रत भी कहा जा सकता है। क्षेत्रादि में सावधानी से या असावधानी से रखी हुई या भूली हुई किसी सचित्त (गाय, भैंस आदि), अचित्त (सुवर्ण आदि) स्थूल वस्तु का ग्रहण करना जिस के लेने से चोरी का अपराध लग सकता है। अथवा दुष्ट अध्यवसायपूर्वक साधारण वस्तु का उस के स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्थूल अदत्तादान कहलाता है। खात खनना, गांठें खोल कर चीज निकालना, जेब काटना, दूसरे के ताले को बिना आज्ञा के खोल लेना, पथिकों को लूटना, स्वामी का पता होते हुए भी किसी पड़ी वस्तु को ले लेना, आदि सभी विकल्प स्थूल अदत्तादान में अन्तर्गत हो जाते हैं। ऐसे स्थूल अदत्तादान का दो करण और तीन योग से त्याग करना स्थूलअदत्तादानत्यागरूप तृतीय अस्तेयाणुव्रत कहलाता है। . दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित अधिकार करना चोरी है। मनुष्य को अपनी आवश्यकताएं अपने पुरुषार्थ से प्राप्त हुए साधनों के द्वारा पूर्ण करनी चाहिएं। यदि प्रसंगवश दूसरों से कुछ लेने की आवश्यकता प्रतीत हो तो वह सहयोगपूर्वक मित्रता के भाव से दिया हुआ ही ग्रहण करना चाहिए। किसी भी प्रकार का बलात्कार अथवा अनुचित शक्ति का प्रयोग कर के कुछ लेना, लेना नहीं है प्रत्युत वह छीनना ही है, जो कि लोकनिंद्य होने के साथ-साथ आत्मपतन का भी कारण बनता है। अतः सुखाभिलाषी मनुष्यों को चौर्यकर्म की जघन्य प्रवृत्तियों से सदा . 1. पत्नी की गोपनीय बात प्रकट न करने में यही हार्द प्रतीत होता है कि वह अपनी गुप्त बात प्रकट हो जाने से लज्जा तथा क्रोधादि के कारण अपने या दूसरों के प्राणों की घातिका बन सकती है। इसलिए उस की गोपनीय बात को प्रकट करने का निषेध किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [825
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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