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________________ अप्रशस्त कहना और जो अप्रशस्त हैं उन को प्रशस्त कहना / अथवा-बहु मूल्य वाले गाय आदि पशुओं को अल्प मूल्य वाले बताना तथा अल्प मूल्य वाले को बहुमूल्य बताना। अथवा-अधिक दूध देने वाले गाय, भैंस आदि पशुओं को कम दूध देने वाला तथा अल्प दूध देने वालों को अधिक दूध देने वाला कहना, इसी भान्ति शीघ्रगति वाले घोड़े आदि पशुओं को कम गति वाले और कम गति वालों को शीघ्रगति वाले कहना, इत्यादि सभी विकल्प गोअलीक के अन्तर्गत हो जाते हैं। ४-न्याससम्बन्धी-अर्थात् कुछ काल के लिए किसी विश्वस्त पुरुष आदि के पास सोना, चान्दी, रुपया, वस्त्र, धान्यादि को पुनः वापस लेने के लिए रखने का नाम न्यास या धरोहर है। उस के सम्बन्ध में झूठ बोलना न्यास-अलीक है। तात्पर्य यह है कि किसी की धरोहर रख कर, देने के समय तुम ने मेरे पास कब रखी थी, उस समय कौन साक्षी-गवाह था, मैं नहीं जानता, भाग जाओ-ऐसा कह देना न्याससम्बन्धी असत्य भाषण होता है। ५-साक्षिसम्बन्धी-अर्थात् झूठी गवाही देना। तात्पर्य यह है कि आँखों से देख लेने पर कहना कि मैं वहां खड़ा था, मैंने तो इसे देखा ही नहीं। अथवा न देखने पर कहना कि मैंने स्वयं इसे अमुक काम करते हुए देखा है...... इत्यादि वाणीविलास साक्षिसम्बन्धी झूठ कहलाता है। कन्यासम्बन्धी, भूमिसम्बन्धी, गोसम्बन्धी, न्याससम्बन्धी तथा साक्षिसम्बन्धी स्थूल असत्य का दो करण तीन योग से त्याग करना स्थूलमृषावादत्यागरूप द्वितीय सत्याणुव्रत कहलाता है। अनन्त काल से आत्मा असत्य भाषण करने के कारण दुःखोपभोग करती आ रही है। नाना प्रकार के क्लेश पाती आ रही है, अतः दुख और क्लेश से विमुक्ति प्राप्त करने के लिए असत्य को छोड़ना होगा तथा सत्य की आराधना करनी होगी। बिना सत्य के आराधन से आत्मश्रेय साधना असंभव है। संभव है इसीलिए पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी ने सत्य को भगवान् कहा है। सत्य की आराधना भगवान् की आराधना है। अतः सत्य भगवान् की सेवा में आत्मार्पण कर के परम साध्य निर्वाणपद की उपलब्धि में किसी प्रकार का विलम्ब नहीं करना चाहिए। इस के अतिरिक्त सत्याणुव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त पांच कार्यों से सदा बचते रहना चाहिए १-विचार किए बिना ही अर्थात् हानि और लाभ का ध्यान न रख कर आवेश में आकर किसी पर तू चोर है, इस विवाद का तू ही मूल है, इत्यादि वचनों द्वारा मिथ्यारोप लगाना, दोषारोपण करना। 824 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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