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________________ के कारण जो तीव्र संताप होता है वह ताप है। ४-गद्गद् स्वर से आँसु गिराने के साथ रोना, पीटना आक्रन्दन है। ५-किसी के प्राण लेना वध है। ६-वियुक्त व्यक्ति के गुणों का स्मरण होने से जो करुणाजनक रुदन होता है वह परिदेवन कहलाता है। उक्त दुःखादि 6 और उन जैसे अन्य भी ताडन, तर्जन आदि अनेक निमित्त जब अपने में, दूसरे में या दोनों में ही पैदा किए जाएं तब वे उत्पन्न करने वाले के असातावेदनीयकर्म के 'बन्धहेतु बनते हैं। सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु-भूत-अनुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षांति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु हैं। इनका विवेचन निम्नोक्त है ___ प्राणिमात्र पर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है अर्थात् दूसरे के दुःख को अपना ही दुःख मानने का जो भाव है वह अनुकम्पा है। अल्पांशरूप से व्रतधारी गृहस्थ और सर्वांशरूप से व्रतधारी त्यागी इन दोनों पर विशेषरूप से अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है। अपनी वस्तु का दूसरों को नम्र भाव से अर्पण करना दान है। सरागसंयम आदि योग का अर्थ हैसरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप इन सब में यथोचित ध्यान देना। संसार की कारणरूप तृष्णा को दूर करने में तत्पर होकर संयम स्वीकार लेने पर भी जबकि मन में राग के संस्कार क्षीण नहीं होते तब वह संयम सरागसंयम कहलाता है। कुछ संयम को स्वीकार करना संयमासंयम है। अपनी इच्छा से नहीं किन्तु परतन्त्रता से जो भोगों का त्याग किया जाता है वह अकामनिर्जरा है। बाल अर्थात् यथार्थ ज्ञान से शून्य मिथ्यादृष्टि वालों का जो अग्निप्रवेश, जलपतन, गोबर आदि का भक्षण, अनशन आदि तप है वह बालतप कहा जाता है। धर्मदृष्टि से क्रोधादि दोषों का शमन क्षांति कहलाता है। लोभवृत्ति और तत्समान दोषों का जो शमन है वह शौच कहलाता है। (4) मोहनीयकर्म की दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय ऐसी दो मूल प्रकृतियां होती हैं.१-जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा समझना दर्शन है, और दर्शन का घात करने वाला कर्म दर्शनमोहनीय है। २-जिस के द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वह चारित्र है और उस का घातक कर्म चारित्रमोहनीय है। (क) दर्शनमोहनीय के बन्धहेतु-१-केवली-अवर्णवाद-केवली-केवलज्ञानी का अवर्णवाद अर्थात् केवली के असत्य दोषों को प्रकट करना। जैसे सर्वज्ञत्व के संभव का स्वीकार न करना, और ऐसा कहना कि सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल उपाय न बता कर जिन का आचरण शक्य नहीं ऐसे दुर्गम उपाय कैसे बताए ? इत्यादि। 1. दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य। (तत्त्वार्थ 6 / 12) 2. भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्वेद्यस्य। (तत्त्वा० 6 / 13) प्राक्कथन श्री विपाक सूत्रम् [53
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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