________________ प्रतीत होता है (1) ज्ञानावरणीय कर्म के तत्प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये 6 बन्धहेतु होते हैं। इनका भावार्थ निम्नोक्त है १-ज्ञान, ज्ञानी. और ज्ञान के साधनों पर द्वेष करना या रखना अर्थात् तत्त्वज्ञान के निरूपण के समय कोई अपने मन ही मन में तत्त्वज्ञान के प्रति, उस के वक्ता के प्रति किंवा उस के साधनों के प्रति जलते रहते हैं। यही तत्प्रदोष-ज्ञानप्रद्वेष कहलाता है। २-कोई किसी से पूछे या ज्ञान का साधन मांगे तब ज्ञान तथा ज्ञान के साधन अपने पास होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि मैं नहीं जानता अथवा मेरे पास वह वस्तु है ही नहीं वह ज्ञाननिह्नव है। ३-ज्ञान अभ्यस्त और परिपक्व हो तथा वह देने योग्य भी हो, फिर भी उस के अधिकारी ग्राहक के मिलने पर उसे न देने की जो कलुषित वृत्ति है वह ज्ञानमात्सर्य है। ४-कलुषित भाव से ज्ञानप्राप्ति में किसी को बाधा पहुँचाना ही ज्ञानान्तराय है। ५-दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो तब वाणी अथवा शरीर से उस का निषेध करना वह ज्ञानासादन है। ६-किसी ने उचित ही कहा हो फिर भी अपनी उलटी मति के कारण उसे अयुक्त . भासित होने से उलटा उस के दोष निकालना उपघात कहलाता है। (2) दर्शनावरणीयकर्म के बन्धहेतु-ज्ञानावरणीय के बन्धहेतु ही दर्शनावरणीय के बन्ध हेतु हैं, अर्थात् दोनों के बन्धहेतुओं में पूरी-पूरी समानता है, अन्तर केवल इतना ही है कि जब पूर्वोक्त प्रद्वेष निह्नवादि ज्ञान, ज्ञानी या उस के साधन आदि के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे ज्ञानप्रद्वेष, ज्ञाननिह्नव आदि कहलाते हैं और दर्शन-सामान्यबोध, दर्शनी अथवा दर्शन के साधनों के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे दर्शनप्रद्वेष, दर्शननिह्नव आदि कहलाते (3) वेदनीयकर्म की मूल प्रकृतियां-सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दो भेदों में विभक्त हैं। जिस कर्म के उदय से सुखानुभव हो वह सातावेदनीय और जिस के उदय से दुःख की अनुभूति हो वह कर्म असातावेदनीय कहलाता है। असातावेदनीय का बन्ध दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवन, इन कारणों से होता है। १-बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीड़ा का होना दुःख है। २-किसी हितैषी के सम्बन्ध के टूटने से जो चिन्ता वा खेद होता है वह शोक है।३-अपमान से मन कलुषित होने 1. तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघातज्ञानदर्शनावरणयोः। (तत्त्वार्थ० 6 / 11) 52 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन