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________________ २-श्रुत का अवर्णवाद-अर्थात् शास्त्र के मिथ्या दोषों को द्वेषबुद्धि से वर्णन करना, जैसे यह कहना कि ये शास्त्र अनपढ़. लोगों की प्राकृतभाषा में, किंवा पण्डितों की जटिल संस्कृतादि भाषा में रचित होने से तुच्छ हैं, अथवा इन में विविध व्रत, नियम तथा प्रायश्चित्त का अर्थहीन एवं परेशान करने वाला वर्णन है, इत्यादि। ३-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ के मिथ्या दोषों का जो प्रकट करना है, वह संघ-अवर्णवाद कहलाता है। जैसे यों कहना कि साधु लोग व्रत नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते हैं, साधुत्व तो संभव ही नहीं, तथा उस का कुछ अच्छा परिणाम भी तो नहीं निकलता। श्रावकों के बारे में ऐसा कहना कि स्नान, दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियां नहीं करते और न पवित्रता को ही मानते हैं, इत्यादि। ४-धर्म का अवर्णवाद-अर्थात् अहिंसा आदि महान् धर्मों के मिथ्या दोष बताना। जैसे यों कहना कि धर्म प्रत्यक्ष कहां दीखता है ? और जो प्रत्यक्ष नहीं दीखता उस के अस्तित्व का संभव ही कैसा? तथा ऐसा कहना कि अहिंसा से मनुष्यजाति किंवा राष्ट्र का पतन हुआ है, इत्यादि। ५-देवों का अवर्णवाद-अर्थात् उन की निन्दा करना, जैसे यों कहना कि देवता तो हैं ही नहीं और हों भी तो व्यर्थ ही हैं, क्योंकि शक्तिशाली हो कर भी यहां आकर हम लोगों की मदद क्यों नहीं करते ? इत्यादि। (ख) चारित्रमोहनीय के बन्धहेतुओं को संक्षेप में-कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम, ऐसा ही कहा जा सकता है। विस्तार से कहें तो उन्हें निम्नोक्त शब्दों में कह सकते हैं १-स्वयं कषाय करना और दूसरों में भी कषाय पैदा करना तथा कषाय के वश हो कर अनेक तुच्छ प्रवृत्तियां करना। २-सत्यधर्म का उपहास करना, ग़रीब या दीन मनुष्य की मश्खरी करना, ठट्टेबाजी की आदत रखना। ३-विविध क्रीड़ाओं में संलग्न रहना, व्रत, नियमादि योग्य अंकुश में अरुचि रखना। ४-दूसरों को बेचैन बनाना, किसी के आराम में खलल डालना, हल्के आदमी की संगति करना आदि। ५-स्वयं शोकातुर रहना तथा दूसरों की शोकवृत्ति को उत्तेजित करना। 1. केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। (तत्त्वा० 6 / 14) 2. कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य। (तत्त्वा० 6 / 15) 54 ] श्री विपाक सूत्रम् . [प्राक्कथन
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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