________________ इस प्रकार कहने लगी कि हे स्वामिन् ! लगभग नौ मास के पूर्ण हो जाने पर मृगादेवी ने एक जन्मांध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है, उस हुंडरूप-भद्दी आकृति वाले जन्मान्ध बालक को देख कर वह भयभीत हुई और उसने मुझे बुलाकर कहा कि हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फैंक आओ। अतः हे स्वामिन् ! आप बताएं कि मैं उसे एकान्त में ले जा कर फैंक आऊं या नहीं? टीका-कर्मरज के प्रकोप से जिस बच्चे के हाथ, पांव तथा आंख, कान प्रभृति कोई भी अंग प्रत्यंग सम्पूर्ण न हो, किन्तु इनकी केवल आकृति अर्थात् आकार मात्र ही हो ऐसे हुंडरूप-नितान्त भद्दे स्वरूप वाले, मात्र श्वास लेते हुए मांस-पिंड को देख कर, और जिसने गर्भस्थ होते ही मुझे पतिप्रेम से भी वञ्चित कर दिया था अब न जाने इस पापात्मा के कारण कौन-कौन सा मेरा अनिष्ट होगा इत्यादि विचारों से प्ररित होती हुई मृगादेवी का भयभीतभय संत्रस्त, व्याकुल तथा भय से कम्पित होना कुछ अस्वाभाविक नहीं है। तथा इस प्रकार के अदृष्टपूर्व, निन्दास्पद-जिसे देखकर छोटे-बड़े सभी को घृणा हो और जिस के कारण जन्म देने वाली को अपवाद हो-पुत्र को घर में रखने की अपेक्षा बाहर फैंक देना ही हितकर है, इस धारणा से धायमाता को बुलाकर उसे तत्काल के जन्मे हुए अंगप्रत्यंग-हीन केवल श्वास लेने वाले मांसपिंड-मांस के लोथड़े को बाहर ले जाकर फैंक देने को कहना भी मृगादेवी को कोई निंदास्पद प्रतीत नहीं हुआ, इसीलिए उसने धायमाता को ऐसा (पूर्वोक्त) आदेश दिया। धायमाता का मृगादेवी की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए विजय नरेश के पास जाकर सारी वस्तु-स्थिति को उसके सामने रखना और उसकी अनुमति मांगना तो उसकी बुद्धिमता और दीर्घदर्शिता का ही सूचक है। इसीलिए उसने बड़ी गंभीरता से सोचना आरम्भ किया कि मृगादेवी ने तत्काल के जन्मे हुए जिस बच्चे को बाहर फैंकने का आदेश दिया है, उसके स्वरूप को देखकर तो उसका बाहर फैंक देना ही उचित है, परन्तु जब तक महाराज की इसमें अनुमति न हो तब तक इस में प्रवृत्त होना मेरे लिए योग्य नहीं है। क्योंकि एक राजकुमार को [फिर भले ही वह किसी प्रकार का भी क्यों न हो] केवल उसकी माता के कह देने मात्र से बाहर फैंक देना पूरा-पूरा खतरा मोल लेना है। इसलिए जब तक इसके पिता विजय नरेश को इस घटना से अवगत न किया जाए और उनकी आज्ञा प्राप्त न की जाए तब तक इस बच्चे को फैंकना तो अलग रहा किन्तु फैंकने का संकल्प करना भी नितान्त मूर्खता है और विपत्ति को आमंत्रित करना है। इन्हीं विचारों से प्रेरित हो कर उस धायमाता ने विजय नरेश को बालक के जन्म-सम्बन्धी सारे वृत्तान्त को स्पष्ट शब्दों में कह सुनाया तथा अन्त में महाराणी मृगादेवी प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [197