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________________ आरुढ़ हो कर। सन्नद्ध-दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके / जाव-यावत् / पहरणे-आयुधों और प्रहरणों से युक्त। मगइएहिं-हस्तपाशित-हाथों में बांधे हुए। जाव-यावत् / रवेणं-महान् उत्कृष्ट आदि के शब्दों द्वारा। समुद्दरवभूयं पिव-समुद्र-शब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को शब्दायमान / करेमाणे-करता हुआ। पुव्वावरण्हकालसमयंसि-मध्याह्न काल में। सालाडवीओ-शालाटवी। चोरपल्लीओ-चोरपल्ली से।णिग्गच्छति-निकलता है। २त्ता-निकलकर विसमदुग्गगहणं- विषम-ऊंचा, नीचा, दुर्ग-जिस में कठिनता से प्रवेश किया जाए ऐसे गहन-वृक्षवन जिस में वृक्षों का आधिक्य हो, में। ठिते-ठहरा / गहियभत्तपाणिए-भक्त पानादि खाद्य सामग्री को साथ लिए हुए। तं-उस। दंडं-दण्डनायक-कोतवाल की। पडिवालेमाणे-प्रतीक्षा करता हुआ। चिट्ठतिठहरता है। . __मूलार्थ-तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति ने अपने गुप्तचरों (जासूसों) की बात को सुन कर तथा विचार कर पांच सौ चोरों को बुला कर इस प्रकार कहा हे महानुभावो ! पुरिमताल नगर के राजा महाबल ने आज्ञा दी है कि यावत् दंडनायक ने शालाटवी चोरपल्ली पर आक्रमण करने तथा मुझे पकड़ने को वहां (चोरपल्ली में) जाने का निश्चय कर लिया है। अतः उस दंडनायक को शालाटवी चोरपल्ली तक पहुंचने से पहले ही रास्ते में रोक देना हमारे लिए उचित प्रतीत होता है। अभग्नसेन के इस परामर्श को चोरों ने "तथेति" (बहुत ठीक है, ऐसा ही होना चाहिए) ऐसा कह कर स्वीकार किया। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुओं को तैयार कराया तथा पांच सौ चोरों के साथ स्नान से निवृत्त हो कर, दुःस्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कृत्य करके, भोजनशाला में उस विपुल अशनादि वस्तुओं तथा पांच प्रकार की मदिराओं का यथारुचि आस्वादन, विस्वादन आदि करना आरम्भ किया। . . . भोजन के अनन्तर उचित स्थान पर आकर आचमन किया और मुख के लेपादि को दूर कर अर्थात् परमशुद्ध हो कर पांच सौ चोरों के साथ आर्द्र चर्म पर आरोहण किया। तदनन्तर दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके यावत् आयुधों और प्रहरणों से सुसज्जित हो कर, हाथों में ढालें बांध कर यावत् महान् उत्कृष्ट और सिंहनाद आदि के शब्दों द्वारा समुद्रशब्द को प्राप्त हुए के समान गगनमंडल को शब्दायमान करते हुए अभग्नसेन ने शालाटवी चोरपल्ली से मध्याह्न के समय प्रस्थान किया और वह खाद्यपदार्थों को साथ लेकर विषम और दुर्ग गहन प्रथम श्रुतस्कंध] . श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [401
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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