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________________ वृक्षवन में स्थिति करके उस दण्डनायक की प्रतीक्षा करने लगा। __टीका-प्रस्तुत सूत्र में चोर सेनापति अभग्नसेन की ओर से दण्डनायक के प्रतिरोध के लिए किए जाने वाले सैनिक आयोजन का दिग्दर्शन कराया गया है। अपने गुप्तचरों की बात सुनकर तथा विचार कर अभग्नसेन ने अपने पांच सौ चोरों को बुलाया और उन से वह सप्रेम बोला कि महानुभावो ! मुझे आज विश्वस्त सूत्र से पता चला है कि इस प्रान्त के नागरिकों ने महाबल नरेश के पास जाकर हमारे विरुद्ध बहुत कुछ कहा है, जिस के फलस्वरूप महाबल नरेश को बड़ा क्रोध आया और उसने अपने दण्डनायककोतवाल को बुला कर चोरपल्ली पर आक्रमण कर उसे विध्वंस करने-लूटने तथा मुझे जीवित पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करने आदि का बड़े उग्र शब्दों में आदेश दिया है। तब यह आदेश मिलते ही दण्डनायक ने भी तत्काल ही बहुत से सुभटों को अस्रशस्त्रादि से सुसज्जित कर के पुरिमताल नगर से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया है। उस के आक्रमण की सूचना तो हमें मिल चुकी है। अब हम को चोरपल्ली की रक्षा का विचार करना चाहिए। हमारी इस समय एक बलवान् से टक्कर है, इसलिए अधिक से अधिक बल का संचय कर के उसका प्रतिरोध करना चाहिए। इस के लिए मैंने तो यह सोचा है कि शीघ्र ही शस्त्रादि से सन्नद्ध हो कर दण्डनायक को मार्ग में ही रोकने का यत्न करना चाहिए। सेनापति अभग्नसेन के इस विचार का सब ने समर्थन किया और वे अपनी-अपनी तैयारी में लग गए। इधर अभग्नसेन ने भी खाद्यसामग्री को तैयार कराया तथा सब के साथ स्नानादि कार्य से निवृत्त होकर दुःस्वप्न आदि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके भोजनशाला में उपस्थित हो सब के साथ भोजन किया। भोजन के अनन्तर विविध भान्ति के भोज्यपदार्थों तथा सुरादि मद्यों का यथारुचि उपभोग कर वह अभग्नसेन बाहर आया और आकर आचमनादि द्वारा परम-शुद्ध हो कर पांच सौ चोरों के साथ आई चर्म पर उसने आरोहण किया और ठीक मध्याह्न के समय अस्त्र शस्त्रादि से सन्नद्ध-बद्ध होकर युद्धसम्बन्धी अन्य साधनों को साथ लेकर तथा पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी की ओर प्रस्थान किया, तदनन्तर मार्ग में विषम एवं दुर्ग वृक्षवन में मोर्चे बना कर बैठ गया और दण्डनायक के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। "-विसमदुग्गगहणं-" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार ने "-विषमं-निम्नोन्नतं, दुर्ग-दुष्प्रवेशं यद् गहनं वृक्षगह्वरम्-" इन शब्दों में की है। इन का भाव निम्नोक्त है 402 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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