________________ इस पद में विषम और दुर्ग ये दो पद विशेषण हैं और गहन यह पद विशेष्य है। ऊंचे और नीचे भाव का बोधक विषम पद है और दुर्ग शब्द कठिनाई से जिस में प्रवेश किया जा सके, ऐसे अर्थ का परिचायक है, एवं गहन पद वृक्षवन का बोध कराता है। जिस में वृक्षों की बहुलता पाई जाए उसे वृक्षवन कहते हैं। "-महब्बलेणं जाव तेणेव-" यहां पठित जाव-यावत् पद से-रण्णा महया भडचडगरेणं दण्डे आणत्ते-गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! सालाडविं- से लेकर-जेणेव सालाडवी-इन पदों का ग्रहण समझना। इन का भावार्थ पीछे दिया जा चुका है। ___ -"तह त्ति जाव पडिसुणेति"- यहां पठित जाव-यावत् पद से-आणाए विणएणं वयणं-इन पदों का ग्रहण समझना। तह त्ति आणाए विणएणं पडिसुणेति-इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में-तह त्ति त्ति नान्यथा, आज्ञया-भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचनमित्यर्थः, विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति-इस प्रकार है। इन पदों का भाव है-तथेति-जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे, इस प्रकार विनय-पूर्वक उसके वचन को स्वीकार करते हैं। -"हाते जाव पायच्छित्ते"- यहां पठित जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल-इन पदों का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ दूसरे अध्याय में किया गया है। .. असणं ४-यहां के 4 के अंक से -पाणं खाइमं साइमं- इन पदों का और -सुरं च५- यहां 5 के अंक से-मधं च मेरगं च जातिं च सीधं च पसण्णं च- इन पदों का, और-आसाएमाणे 4- यहां के 4 अंक से-विसाएमाणे, परिभाएमाणे, परिभुंजेमाणेइन पदों का और-सन्नद्ध जाव पहरणे-यहां के जाव-यावत् पद से - बद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए, पिणद्धगेविजे, विमलवरबद्धचिंधपट्टे गहियाउह-इन पदों का ग्रहणं करना चाहिए, और-मगडएहिं जाव रवेणं-यहां के जाव-यावत् पद से - "फलएहि, निक्किट्ठाहिं, असीहिं अंसागएहिं तोणेहिं सजीवेहिं धहिं-से लेकर-महया 2 उक्किट्ठसीहनायबोलकलकल-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तदनन्तर क्या हुआ, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैंमूल-तते णं से दंडे जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावती तेणेव उवागच्छति (1) इन के अर्थ के लिए देखो प्रथम अध्याय का टिप्पण। (2) अर्थ के लिए देखो द्वितीय अध्याय। (3) अर्थ के लिए देखो द्वितीय अध्याय। (4) अर्थ के लिए देखिए द्वितीय अध्याय, परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां ये द्वितीयान्त हैं और यहां पर प्रथमान्त हैं, तथापि अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है। (5) अर्थ के लिए इसी अध्ययन में पीछे देखिए। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [403