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________________ पीछे कराया जा चुका है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। प्रस्तुत कथा-सन्दर्भ में एक ऐसा स्थल है जो पाठकों को सन्देह-युक्त कर देता है। पूज्य श्री अभयदेव सूरि ने इस सम्बन्ध में विशिष्ट ऊहापोह करते हुए उसे समाहित करने का बड़ा ही श्लाघनीय प्रयत्न किया है। आचार्य अभयदेव सूरि का वह वृत्तिगत उल्लेख इस प्रकार "ननु तीर्थंकरा यत्र विहरन्ति तत्र देशे पंचविंशतेर्योजनानाम्, आदेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थंकरातिशयाद न वैरादयोऽनर्था भवन्ति, यदाह-" 'पुव्वुप्पन्ना रोगा पसमंति ईइवइरमारीओ, अइबुट्ठी अणावुट्ठी न होइ दुब्भिक्खं डमरं च॥१॥ तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमतालनगरे व्यवस्थित एवाभग्नसेनस्य पूर्ववर्णितो व्यतिकरः सम्पन्न इति ? अत्रोच्यते-"सर्वमिदमर्थानर्थजातं प्राणिनां स्वकृतकर्मणः सकाशादुपजायते, कर्म च द्वेधा-सोपक्रमं निरुपक्रमं च, तत्र यानि वैरादीनि सोपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्येव जिनातिशयादुपशाम्यन्ति, सदौषधात् साध्यव्याधिवत्।यानि तु निरुपक्रमकर्मसम्पाद्यानि तानि अवश्यं विपाकतो वेद्यानि, नोपक्रमकारणविषयाणि, असाध्यव्याधिवत्। अत एव सर्वातिशयसंपत्समन्वितानां जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकादय उपसर्गान् विहितवन्तः" इन पदों का भावार्थ निम्नलिखित है - शास्त्रकारों का कथन है कि जिस राष्ट्र, देश वा प्रान्त में तथा जिस मंडल, जिस ग्राम और जिस भूमि में तीर्थंकर देव विराजमान हों, उस स्थान से 25 योजन की दूरी तक अर्थात् 25 योजन के मध्य में तीर्थंकर के अतिशय-विशेष से अर्थात् उन के आत्मिकतेज से वैर तथा दुर्भिक्ष आदिक अनर्थ नहीं होने पाते। जैसे कि कहा है तीर्थंकर देव के अतिशयविशेष से 25 योजन के मध्य में पूर्व उत्पन्न रोग शान्त हो जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं और भविष्य में सात उपद्रव भी उत्पन्न नहीं होने पाते / सात उपद्रवों के नाम हैं-(१) ईति (2) वैर (3) मारी (4) अतिवृष्टि (5) अनावृष्टि (6) दुर्भिक्ष और (7) डमर। ईति आदि पदों का भावार्थ निम्नोक्त है. (1) ईति-खेती को हानि पहुंचाने वाले उपद्रव का नाम ईति है और वह (1) .. 1.. पूर्वोत्पन्ना रोगाः प्रशाम्यन्ति ईतिवैरमार्यः। अतिवृष्टिरनावृष्टिर्न भवति दुर्भिक्षं डमरं च // 1 // 2. साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को तीर्थ कहते हैं, उसके संस्थापक का नाम तीर्थंकर है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [425
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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