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________________ औपपातिक सूत्र में बड़े विस्तार के साथ वर्णित हुआ है। प्रस्तुत में इतनी ही भिन्नता है कि वहां हस्तिशीर्षनरेश महाराज अदीनशत्रु पुष्पकरण्डक उद्यान में जाते हैं। नगर, राजा, रानी तथा उद्यानगत भिन्नता के अतिरिक्त अवशिष्ट प्रभुवीरदर्शनयात्रा का वृत्तान्त समान है अर्थात् श्री औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी, श्रेणिकपुत्र महाराज कूणिक, सुभद्राप्रमुख रानियाँ और पूर्णभद्र उद्यान का वर्णन है, जबकि सुबाहुकुमार के इस अध्ययन में हस्तिशीर्ष नगर, महाराज अदीनशत्रु, धारिणीप्रमुख रानियां और पुष्पकरण्डक उद्यान का उल्लेख है। . तथा "-सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं णिग्गए जाव-" इस का तात्पर्य वृत्तिकार के शब्दों में "-येन भगवतीवर्णितप्रकारेण जमाली भगवद्भागिनेयो भगवद्वन्दनाय रथेन निर्गतः, अयमपि तेनैव प्रकारेण निर्गत इति, इह यावत्करणादिदं दृश्य-समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइच्छत्तं पडागाइपडागं विजाचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे य पासइ, पासित्ता रहाओ पच्चोरुहइ पच्चारुहित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ-" इत्यादि, इस प्रकार है। अर्थात्-भगवान् के भागिनेय-भानजा जमालि का भगवान् को वन्दना करने के लिए चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर जाने का जैसा वर्णन भगवती सूत्र में किया गया है, ठीक उसी तरह सुबाहुकुमार भी चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर भगवद्वन्दनार्थ नगर से निकला। इस अर्थ के परिचायक-सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं णिग्गए-ये शब्द हैं और जाव-यावत् शब्द-श्रमण भगवान् महावीर के छत्र के ऊपर के छत्र को, पताका के ऊपर की पताकाओं को देख कर विद्याचारण और जूंभक देवों को ऊपर-नीचे जाते-आते देख कर रथ से नीचे उतरा और उतर कर भगवान् को भावपूर्वक वन्दना नमस्कार किया, इत्यादि भावों का परिचायक है। तात्पर्य यह है कि भगवद्वन्दनार्थ सुबाहुकुमार उसी भाँति गया जिस तरह जमालि गया था। जमालि के जाने का सविस्तार वर्णन भगवती सूत्र (शतक 9, उद्दे० 33, सू० 383) में किया गया है, परन्तु प्रकरणानुसारी जमालि का संक्षिप्त जीवनपरिचय निनोक्त है ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के पश्चिम में क्षत्रियकुण्डग्राम एक नगर था। वह नगर नगरोचित सभी ऋद्धि, समृद्धि आदि गुणों से परिपूर्ण था। उस नगर में जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता था। वह धनी, दीप्त-तेजस्वी यावत् किसी से पराभव को प्राप्त न होने वाला था। एक दिन वह अपने उत्तम महल के ऊपर जिस में मृदंग बज रहे थे, बैठा हुआ था। सुन्दर युवतियों के द्वारा आयोजित बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उस का नर्तन कराया जा रहा था अर्थात् वह नचाया जा रहा था, उस की स्तुति की जा रही थी, उसे अत्यन्त प्रसन्न किया . 854 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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