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________________ जा रहा था, अपने वैभव के अनुसार प्रावृट्', वर्षा, शरद्, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म इन छ: ऋतुओं के सुख का अनुभव करता हुआ, समय व्यतीत करता हुआ, मनुष्य सम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध रूप कामभोगों का अनुभव कर रहा था। इधर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के रेशृंङ्गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख-चार द्वारों वाला प्रासाद अथवा देवकुलादि, महापथ और अपथ इन सब स्थानों पर महान् जनशब्दपरस्पर आलापादि रूप, जनव्यूह-जनसमूह, जनबोल-मनुष्यों की ध्वनि, अव्यक्त शब्द, जनकलकल-मनुष्यों के कलकल-व्यक्त शब्द, जनोर्मि-लोगों की भीड़, जनोत्कलिकामनुष्यों का छोटा समुदाय, जनसन्निपात (दूसरे स्थानों से आकर लोगों का एक स्थान पर एकत्रित होना) हो रहे थे, और बहुत से लोग एक-दूसरे को सामान्यरूप से कह रहे थे कि भद्रपुरुषो! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो कि धर्म की आदि करने वाले हैं, यावत् सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी हैं, ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के बाहर बहुशालक नामक उद्यान में यथाकल्पकल्प के अनुसार विराजमान हो रहे हैं। हे भद्रपुरुषो ! जिन तथारूप-महाफल को उत्पन्न करने के स्वभाव वाले, अरिहन्तों भगवन्तों के नाम और गोत्र के सुनने से भी महाफल की प्राप्ति होती है, तब उन के अभिगमनसन्मुख गमन, वन्दन-स्तुति, नमस्कार, प्रतिप्रच्छन-शरीरादि की सुखसाता पूछना और पर्युपासनासेवा से तो कहना ही क्या ! अर्थात् अभिगमनादि का फल कल्पना की परिधि से बाहर है। इसके अतिरिक्त जब एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन के श्रवण से महान फल होता है, तब विशाल अर्थ के ग्रहण करने से तो कहना ही क्या ! अर्थात् उस का वर्णन करना शक्य नहीं है। इसलिए हे. भद्रपुरुषो ! चलो, हम सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की स्तुति करें, उन्हें नमस्कार तथा उन का सत्कार एवं सम्मान करें। भगवान् कल्याण करने वाले हैं, मंगल करने वाले हैं, आराध्यदेव हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, अतः इन की सेवा करें। भगवान् को की हुई वन्दना आदि हमारे लिए परलोक और इस लोक में हितकारी, सुखकारी, क्षेमकारी, मोक्षप्रद होने के साथ-साथ सदा के लिए जीवन को सुखी बनाने वाली होगी। इस प्रकार बातें करते हुए बहुत से उग्र-प्राचीन काल के क्षत्रियों की एक जाति जिस की भगवान् श्री ऋषभदेव ने आरक्षक पद पर नियुक्ति की थी, उग्रपुत्र-उग्रक्षत्रियकुमार, भोग-श्री ऋषभदेव प्रभु द्वारा गुरुस्थान पर स्थापित कुल, भोगपुत्र, राजन्य-भगवान श्री ऋषभ प्रभु द्वारा मित्रस्थान पर स्थापित वंश, राजन्यपुत्र, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र, भट-शूरवीर, भटपुत्र,योधा-सैनिक, योधपुत्र, 1. प्रावृट् आदि शब्दों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के नवमाध्याय में लिख दिया गया है। 2. शृंगाटक आदि शब्दों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में लिखा जा चुका है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [855
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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