________________ उपसंहार सूत्रकार ने जैसे प्रत्येक अध्ययन की प्रस्तावना और उस का उपसंहार करते हुए उत्क्षेप और निक्षेप इन दो पदों का उल्लेख करके प्रत्येक अध्ययन के आरम्भ और समाप्ति का बोध . कराया है, उसी क्रम के अनुसार श्री विपाकश्रुत का उपसंहार करते हुए सूत्रकार मंगलपूर्वक समाप्तिसूचक पदों का उल्लेख करते हैं मूल-नमो सुयदेवयाए। विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा-दुहविवागो य सुहविवागो यातत्थ दुहविवागे दस अज्झयणा एक्कसरगा दससुचेव दिवसेसु उद्दिसिजन्ति। एवं सुहविवागे वि। सेसं जहा आयारस्स। ॥एक्कारसमं अंगं सम्मत्तं॥ छाया-नमः श्रुतदेवतायै। विपाकश्रुतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ-दुःखविपाकः सुखविपाकश्च। तत्र दुःखविपाके दश अध्ययनानि एकसदृशानि दशस्वेव दिवसेषु उद्दिश्यन्ते / एवं सुखविपाकेऽपि। शेषं यथा आचारस्य। // एकादशांगं समाप्तम्॥ पदार्थ-नमो-नमस्कार हो। सुयदेवयाए-श्रुतदेवता को। विवागसुयस्स-विपाकश्रुत के। दोदो। सुयक्खंधा-श्रुतस्कंध हैं, जैसे कि / दुहविवागो य-दुःखविपाक और। सुहविवागो य-सुखविपाक / तत्थ-वहां। दुहविवागे-दुःखविपाक में। दस-दस।अज्झयणा-अध्ययन। एक्कसरगा-एक जैसे। दंससु चेव-दस ही। दिवसेसु-दिनों में। उद्दिसिजंति-कहे जाते हैं। एवं-इसी प्रकार। सुहविवागे वि-सुखविपाक में भी समझ लेना चाहिए। सेसं-शेष वर्णन। जहा-जैसे।आयारस्स-आचारांग सूत्र का है, वैसे यहां पर भी समझ लेना चाहिए। एक्कारसमं-एकादशवां। अंग-अंग। सम्मत्तं-सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-श्रुतदेवता को नमस्कार हो। विपाकश्रुत के दो श्रुतस्कंध हैं। जैसे कि१-दुःखविपाक और २-सुखविपाक। दुःखविपाक के एक जैसे दश अध्ययन हैं जो 996 ] श्री विपाक सूत्रम् / उपसंहार [द्वितीय श्रुतस्कंध