________________ ब्रह्मचर्य के पालन का उपदेश दिया है। इस के विपरीत जो मानव प्राणी ब्रह्मचर्य से पराङ्मुख होकर निरन्तर विषयसेवन में प्रवृत्त रहते हैं, वे अपना शारीरिक और मानसिक बल खोने के साथ-साथ जीवों की भी भारी संख्या में विराधना करते हुए अधिक से अधिक आत्मपतन की ओर प्रस्थान करते हैं। तब पापकर्मों के उपचय से उन की आत्मा इतनी भारी हो जाती है कि उन को ऊर्ध्वगति की प्राप्ति असंभव हो जाती है और उन्हें नारकीय दुःखों का उपभोग करना पड़ता है। पृथिवीश्री नाम की वेश्या के नरकगमन का कारण विषयासक्ति ही अधिक रहा है। . उस ने इस जघन्य सावध प्रवृत्ति में इतने अधिक पापकर्म उपार्जित किए कि जिन से अधिक प्रमाण में भारी हुई उस की आत्मा को छठी पृथ्वी में उत्पन्न हो कर अपनी करणी का फल पाना पड़ा। भगवान् कहते हैं कि गौतम ! नरक की भवस्थिति पूरी कर फिर वह इसी वर्धमानपुर * नगर में धनदेव सार्थवाह की भार्या प्रियंगूश्री के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् गर्भ में आई। लगभग नवमास पूरे होने के अनन्तर प्रियंगूश्री ने एक कन्यारत्न को जन्म दिया। जन्म के बाद नामसंस्कार के समय उस का अंजूश्री नाम रक्खा गया। उस का भी पालन-पोषण और संवर्धन देवदत्ता की तरह सम्पन्न हुआ, तथा उस का रूपलावण्य और सौन्दर्य भी देवदत्ता की भांति अपूर्व था। एक दिन अंजूश्री अपनी सहेलियों और दासियों के साथ अपने उन्नत प्रासाद के झरोखे में कनक-कन्दुक अर्थात् सोने की गेंद से खेल रही थी। इतने में वर्धमानपुर के नरेश महाराज विजयमित्र अश्वक्रीड़ा के निमित्त भ्रमण करते हुए उधर से गुजरे तो अचानक उन की दृष्टि अंजूश्री पर पड़ी। उस को देखते ही वे उस पर इतने मुग्ध हो गए कि उन को वहां से आगे बढ़ना कठिन हो गया। अंजूश्री के सौन्दर्यपूर्ण शरीर में कन्दुक-क्रीड़ा से उत्पन्न होने वाली विलक्षण चंचलता ने अश्वारूढ विजय नरेश के मन को इतना चंचल बना दिया कि उस के कारण वे अंजूश्री को प्राप्त करने के लिए एकदम अधीर हो उठे। मन पर से उन का अंकुश उठ गया और वह अंजूश्री की कन्दुकक्रीड़ाजनित शारीरिक चंचलता के साथ ऐसा उलझा कि वापिस आने का नाम ही नहीं लेता। सारांश यह है कि अंजूश्री को देख कर महाराज विजयनरेशं उस पर मोहित हो गए और साथ में आने वाले अनुचरों से उस के नाम, ठाम आदि के विषय में पूछताछ कर येन केन उपायेन उसे प्राप्त करने की भावना के साथ वापिस लौटे अर्थात् आगे जाने के विचार को स्थगित कर स्वस्थान को ही वापिस आ गए। इनके आगे का अर्थात् अंजूश्री को प्राप्त करने के उपाय से ले कर उस की प्राप्ति तक 760 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कन्ध