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________________ वेश्या ने काममूलक विषयवासना की पूर्ति के लिए गुप्त और प्रकट रूप में जितना भी पापपुंज एकत्रित किया, उसी के परिणामस्वरूप वह छठी नरक में गई और उस ने वहां नरकगत वेदनाओं का उपभोग किया। प्रश्न-यह ठीक है कि मैथुन से मनुष्य के शरीर में अवस्थित सारभूत पदार्थ वीर्य का क्षय होता है। वीर्यनाश से शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्ति का ह्रास होता है। बुद्धि मलिन हो जाती है। किसी भी काम में उत्साह नहीं रहने पाता, तथा यह भी ठीक है कि मैथुनसेवी व्यक्ति दूसरों के अनुचित दबाव से झुक जाता है, उस की प्रवृत्ति दब्बू हो जाती है, वह लोगों के अपमान का भाजन बन जाता है, तथा और भी अनेकों दुर्गुण हैं जिन का वह शिकार हो जाता है। इस के अतिरिक्त क्या विषयसेवन में हिंसा (प्राणिवध) की संभावना भी रहती है ? उत्तर-हां, अवश्य रहती है। शास्त्रों में लिखा है कि जिस समय काम-प्रवृत्तिमूलक स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध होता है, उस समय असंख्यात (संख्यातीत) जीवों की विराधना होती है। स्त्री पुरुष के सम्बन्ध के समय होने वाले प्राणिविनाश के लिए शास्त्रों में एक बड़ा ही मननीय उदाहरण दिया है। वहां लिखा है कि कल्पना करो कि कोई पुरुष एक बांस की नलिका में रुई या बूर को भर कर उसमें अग्नि के समान तपी हुई लोहे की सलाई का प्रवेश कर दे, तो उससे रुई या बूर जल कर भस्म हो जाता है। इसी तरह स्त्री पुरुष के संग में भी असंख्यात संमूर्छिम त्रस जीवों का विनाश होता है। यहां नलिका के समान स्त्री की जननेन्द्रिय और शलाका के समान पुरुषचिन्ह तथा तूल-रुई के सदृश वे संमूर्छिम जीव हैं, जो दोनों के संगम से मर जाते हैं। इसलिए विषय-मैथुन-प्रवृत्ति जहां अन्य अनर्थों की उत्पादिका है, वहां वह हिंसामूलक भी है। इसी जीवविराधना को लक्ष्य में रखकर ही तत्त्ववेत्ता महापुरुषों ने सामान्यरूप से इस के दो प्रकार होते हैं। प्रथम यह कि इस का प्रयोग दैविकशक्ति को धारण करता है। इस प्रयोग से जो भी कुछ होता है वह देवबल से होता है अर्थात देवता के प्रभाव से होता है। इस मान्यता के अनुसार इस का प्रयोग वही कर सकता है जिस के वश में दैविक शक्ति हो। दूसरी मान्यता यह है कि इस का प्रयोग करने वाला ऐसे पुद्गलों-परमाणुओं का संग्रह करता है कि जिन में आकर्षण शक्ति प्रधान होती है, और उन के प्रयोग से जिस पर भी प्रयोग होता है वह दास की तरह आज्ञाकारी तथा अनुकूल हो जाता है। प्रथम में देवदृष्टि को प्राधान्य प्राप्त है और दूसरे में मात्र आकर्षक परमाणुओं का प्रभाव है। इस में देवदृष्टि को कोई स्थान नहीं। 1. मेहुणेणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए असंजमे कज्जइ ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे रुयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कणएणं समविद्धंसेजा, एरिसेणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ। (भगवतीसूत्र श० 2 उद्दे 05, सू० 106) / इस के अतिरिक्त मैथुन के सम्बन्ध में श्री दशवैकालिक सूत्र में क्या ही सुन्दर लिखा है मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयन्ति णं ॥अ०६/१७। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [759
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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