________________ यावत् सानन्द विहरण करते हैं। टीका-गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में उन के द्वारा देखी हुई स्त्री के पूर्वभवसम्बन्धी जीवन-वृत्तान्त का आरम्भ करते हुए श्रमण भगवान् महावीर बोले कि-गौतम ! बहुत पुरानी बात है, इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में अर्थात् भारत वर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक नगर था, वहां पर महाराज इन्द्रदत का शासन था। वह प्रजा का बड़ा ही हितचिन्तक और न्यायशील राजा था। उस के शासन में प्रजा को हर एक प्रकार से सुख तथा शान्ति प्राप्त थी। उसी इन्द्रपुर नगर में पृथिवीश्री नाम की एक गणिका रहती थी। वह कामशास्त्र की विदुषी, अनेक कलाओं में निपुण, बहुत सी भाषाओं की जानकार और शृङ्गार की विशेषज्ञा थी। इस के अतिरिक्त नृत्य और संगीत कला में भी वह अद्वितीय थी। इसी कला के प्रभाव से वह राजमान्य हो गई थी। हज़ारों वेश्याएं उस के शासन में रहती थीं। उस का रूप लावण्य तथा शारीरिक सौन्दर्य एवं कलाकौशल्य उस के पृथिवीश्री नाम को सार्थक कर रहे थे। पृथिवीश्री अपने शारीरिक सौन्दर्य तथा कलाप्रदर्शन के द्वारा नगर के अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति-आदि धनी मानी युवकों को अपनी ओर आकर्षित किए हुए थी। किसी को सौन्दर्य से, किसी को कला से और किसी को विलक्षण हावभाव से वह अपने वश में करने के लिए सिद्धहस्त थी, और जो कोई इन से बच जाता उसे वशीकरणसम्बन्धी चूर्णादि के प्रक्षेप से अपने वश में कर लेती। इस प्रकार नगर के रूप तथा यौवन सम्पन्न धनी मानी गृहस्थों के सहवास से वह मनुष्यसम्बन्धी उदार-प्रधान विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करती हुई सांसारिक सुखों का अनुभव कर रही थी। वशीकरण के लिए अमुक प्रकार के द्रव्यों का मंत्रोच्चारपूर्वक या बिना मंत्र के जो सम्मेलन किया जाता है, उसे चूर्ण कहते हैं। इस वशीकरणचूर्ण का जिस व्यक्ति पर प्रक्षेप किया जाता है अथवा जिसे खिलाया जाता है, वह प्रक्षेप करने या खिलाने वाले के वश में हो जाता है। इस प्रकार के वशीकरणचूर्ण 2 उस समय बनते या बनाए जाते थे और उनका प्रयोग भी किया जाता था, यह प्रस्तुत सूत्रपाठ से अनायास ही सिद्ध हो जाता है। पृथिवीश्री नामक 1. भरतक्षेत्र अर्ध चन्द्रमा के आकार का है। उसके तीन तरफ लवण समुद्र और उत्तर में चुल्लहिमवन्त पर्वत है अर्थात् लवण समुद्र और चुल्लहिमवंतपर्वत से उस की हद बंधी है। भरत के मध्य में वैताढ्य पर्वत है, और उस के दो भाग होते हैं। वैताढ्य की दक्षिण तरफ़ का दक्षिणार्ध भरत और उत्तर की तरफ का उत्तरार्द्ध भरत कहलाता है। चुल्लहिमवन्त के ऊपर से निकलने वाली गंगा और सिन्धु नदी वैताढ्य की गुफाओं में से निकल कर लवण समुद्र में मिलती हैं, इससे भरत के छः विभाग हो जाते हैं। इन छ: विभागों में साम्राज्य प्राप्त करने वाला व्यक्ति चक्रवती कहलाता है। तीर्थंकर वगैरह दक्षिणाध के मध्य खण्ड में होते हैं। (अर्धमागधी कोष) 2. तान्त्रिकग्रन्थों में स्त्रीवशीकरण, पुरुषवशीकरण और राजवशीकरण आदि अनेकविध प्रयोगों का उल्लेख है। उन में केवल मंत्रों, केवल तंत्रों और मंत्रपूर्वक तंत्रों के भिन्न-भिन्न प्रकार वर्णित हैं, परन्तु 758 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रृंतस्कन्ध