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________________ इस प्रकार पांचों धायमाताओं के यथाविधि संरक्षण में बढ़ता और फलता-फूलता हुआ कुमार अभग्नसेन जब बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त हुआ तो उस का शरीरगत सौन्दर्य और भी चमक उठा। उस को देख कर प्रत्येक नर-नारी मोहित हो जाता, हर एक का मन उस के रूप-लावण्य की ओर आकर्षित होता और विशेष कर युवतिजनों का मन उस की ओर अधिक से अधिक खिंचता। उसी के फलस्वरूप वहां के आठ प्रतिष्ठित घरों की कन्याओं के साथ उस का पाणिग्रहण हुआ। और आठों के यहां से उस को आठ-आठ प्रकार का पर्याप्त दहेज मिला, जिस को लेकर वह उन आठों कन्याओं के साथ अपने विशाल महल में रह कर सांसारिक विषय-भोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा। अथवा यूं कहिए कि उन आठ सुन्दरियों के साथ विशालकाय भवनों में रह कर आनन्द-पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। यहां एक शंका हो सकती है, वह यह कि-जब अभग्नसेन के जीव ने पूर्व जन्म में भयंकर दुष्कर्म किए थे, तो उन का फल भी बुरा ही मिलना चाहिए था, परन्तु हम देखते हैं कि उसकी शैशव तथा युवावस्था में उस के लालन-पालन का समुचित प्रबन्ध तथा प्रतिष्ठित घराने की रूपवती आठ कन्याओं से उस का पाणिग्रहण एवं दहेज में विविध भान्ति के अमूल्य पदार्थों की उपलब्धि और उन का यथारुचि उपभोग, यह सब कुछ तो उस को महान पुण्यशाली व्यक्ति प्रमाणित कर रहा है ? यह शंका स्थूल रूप से देखने से तो अवश्य उचित और युक्तिसंगत प्रतीत होती है, परन्तु जरा गम्भीर-दृष्टि से देखेंगे तो इस में न तो उतना औचित्य ही है और न युक्तिसंगतता ही। यह तो सुनिश्चित ही है कि इस जीव को ऐहिक या पारलौकिक जितना भी सुख या दुःख उपलब्ध होता है, वह उस के पूर्व संचित शुभाशुभ कर्मों का परिणाम है। और यह भी यथार्थ है कि संसारी आत्मा अपने अध्यवसाय के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों का बन्ध करता है। सत्तागत कर्मों में शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म होते हैं। उन में से जो कर्म जिस समय उदय में आता हैं, उस समय वह फल देता है। अगर शुभ कर्म का विपाकोदय हो तो इस जीव को सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है और अशुभ कर्म के विपाकोदय में दुःख तथा दरिद्रता की उपलब्धि होती है। हम संसार में यह प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि एक ही जन्म में अनेक जीव समय-समय पर सुख तथा ऐश्वर्य और दुःख तथा दरिद्रता दोनों को ही प्राप्त कर रहे हैं। एक व्यक्ति जो आज हर प्रकार से दुःखी है कल वही सर्व प्रकार से सुखी बना हुआ दिखाई देता है और जो आज परम-सुखी नजर आता है कल वही दुःख से घिरा हुआ दिखाई देता है। यदि यह सब कुछ कर्माधीन ही है तो यह मानना पड़ेगा 382 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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