________________ अब्भुटेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! जणं तब्भे वदह त्ति कट्ट एवं वयासी-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। सद्दहामि णं भंते ! इत्यादि पदों का शब्दार्थ निनोक्त है हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखता हूं। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रीति-स्नेह रखता हूँ। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन मुझे अच्छा लगता है। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन को मैं स्वीकार करता हूं। हे भगवन् ! जैसा आप ने कहा है, वैसा ही है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन जैसी वस्तु है उसी के अनुसार है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन सत्य है। भगवन् ! आप का प्रवचन सन्देहरहित है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन इष्ट है। भगवन् ! आप का प्रवचन बारम्बार इष्ट है / हे भगवन् ! आप जो कहते हैं वह इष्ट तथा अत्यधिक इष्ट हैइस प्रकार कह कर सुबाहुकुमार फिर बोले। -राईसर जाव प्पभिइओ-यहां पठित जाव-यावत् पद से-तलवरमाडंबियकोडुंबि- . . यसेट्ठिसेणावइसत्थवाह-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। राजा प्रजापति को कहते हैं। सेना के नायक का नाम सेनापति है। अवशिष्ट ईश्वर आदि पदों का अर्थ प्रथम श्रुतस्कंधीय द्वितीयाध्याय में लिखा जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र में हस्तिशीर्ष नगर के बाहर पुष्पकरण्डक उद्यान में भगवान् महावीर स्वामी का पधारना, उन के दर्शनार्थ जनता तथा अदीनशत्रु आदि का आना और उन के चरणों में उपस्थित हो कर सुबाहुकुमार का देशविरति-श्रावकधर्म को अंगीकार करना आदि बातों का उल्लेख किया गया है। अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में सुबाहुकुमार के रूप-लावण्य से विस्मय को प्राप्त हुए भगवान् के प्रधान शिष्य श्री गौतम स्वामी की जिज्ञासा के विषय में प्रतिपादन करते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं जेढे अंतेवासी इंदभूई जाव एवं वयासी-अहो णं भंते ! सुबाहुकुमारे इढे इट्ठरूवे कंते कंतरूवे पिए पियरूवे मणुण्णे मणुण्णरूवे मणामे मणामरूवे सोमे सुभगे पियदंसणे सुरूवे।बहुजणस्स वि य णं भंते ! सुबाहुकुमारे इढे जाव सुरूवे। साहुजणस्स वि य णं भंते ! सुबाहुकुमारे इढे जाव सुरूवे।सुबाहुणा भंते ! कुमारेणं इमा इमारूवा उराला माणुसरिद्धी किण्णा लद्धा ? किण्णा पत्ता ? किण्णा अभिसमन्नागया ? को वा एस आसी पुव्वभवे ? जाव समन्नागया ? " 858 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध