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________________ भगवान् महावीर स्वामी पधारे हुए हैं। ये लोग उन्हीं के चरणों में अपनी-अपनी भावना के अनुसार उपस्थित होने के लिए जा रहे हैं। द्वारपाल की इस बात को सुन कर जमालि पुलकित हो उठा और उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर उन्हें चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ को शीघ्रातिशीघ्र तैयार करके अपने पास उपस्थित कर देने की आज्ञा दी। कौटुम्बिक पुरुषों ने जमालि की इस आज्ञा के अनुसार रथ को शीघ्रातिशीघ्र तैयार कर उस के पास उपस्थित कर दिया। ___तदनन्तर जमालि कुमार स्नानादि से निवृत्त हो तथा वस्त्राभूषणादि से विभूषित हो कर, जहां रथ तैयार खड़ा था, वहां पहुँचा, वहां पहुँच कर वह चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ पर चढ़ा तथा सिर के ऊपर धारण किए गए कोरण्ट पुष्पों की माला वाला, छत्रों सहित, महान् योद्धाओं के समूह से परिवृत वह जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर के मध्य भाग में से होता हुआ बाहर निकला, निकल कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर का बहुशालक नामक उद्यान था वहां आया, आकर रथ से नीचे उतरा तथा पुष्प, ताम्बूल, आयुध-शस्त्र तथा उपानत् को छोड़ कर एक वस्त्र से उत्तरासन कर और मुखादि की शुद्धि कर, दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर अंजलि रख कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आया, आकर उसने श्री वीर प्रभु को तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की तथा कायिक', वाचिक एवं मानसिक पर्युपासना द्वारा भगवान् की सेवा भक्ति करने लगा-यह है जमालि कुमार का वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त, जिस की सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त से तुलना की है। जमालि और सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त में अधिक साम्य होने के कारण ही सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त को बताने के लिए जमालि कुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त की ओर संकेत कर दिया है। अन्तर मात्र नामों का है। जैसे जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नगर का निवासी था जबकि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर का। इसी भाँति जमालि कुमार ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बहुशालक उद्यान में भगवान् महावीर के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर वहां गया था जबकि श्री सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यान में प्रभु के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर गया था। सारांश यह है कि नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। "सदहामिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव"-इस पाठ में दिए गए जाव-यावत् इस पद से-पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं एवं रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, 1. कायिक आदि त्रिविध पर्युपासना का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में टिप्पणी में किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [857
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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