________________ था, साथ में वहां यह भी उल्लेख किया गया था कि उस में सुभद्र नाम का एक सार्थवाहमुसाफ़िर व्यापारियों का मुखिया, रहता था। उस की धर्मपत्नी का नाम भद्रा था जो कि जातनिंदुका थी अर्थात् उसके बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे। इसलिए संतान के विषय में वह बहुत चिन्तातुर रहती थी। पति के आश्वासन और पर्याप्त धनसम्पत्ति का उसे जितना सुख था, उतना ही उस का मन सन्तति के अभाव में दुःखी रहता था। मनोविज्ञान शास्त्र का यह नियम है कि जिस पदार्थ की इच्छा हो उस की अप्राप्ति में मानसिक व्यग्रता अशांति बराबर बनी रहती है। यदि इच्छित वस्तु प्रयत्न करने पर भी न मिले तो मन को यथाकथंचित् समझा बुझा कर शान्त करने का उद्योग किया जाता है, अर्थात् प्रयत्न तो बहुत किया, उद्योग करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी, उस पर भी यदि कार्य नहीं बन पाया, अर्थात् मनोरथ की सिद्धि नहीं हुई तो इस में अपना क्या दोष। यह विचार कर मन को ढाढ़स बंधाया जाता है। यले कृते यदि न सिध्यति, कोऽत्र दोषः। परन्तु जिस वस्तु की अभिलाषा है, वह यदि प्राप्त हो कर फिर चली जाए-हाथ से निकल जाए तो पहली दशा की अपेक्षा इस दशा में मन को बहुत चोट लगती है। उस समय मानस में जो क्षोभ उत्पन्न होता है, वह अधिक कष्ट पहुंचाने का कारण बनता है। सुभंद्र सार्थवाह की स्त्री भद्रा उन भाग्यहीन महिलाओं में से एक थी जिन्हें पहले इष्ट वस्तु की प्राप्ति तो हो जाती हो, परन्तु पीछे वह उन के पास रहने न पाती हो। तात्पर्य यह है कि भद्रा जिस शिशु को जन्म देती थी, वह तत्काल ही मृत्यु का ग्रास बन जाता था, उसे प्राप्त हुई अभिलषित वस्तु उसके हाथ से निकल जाती थी, जो महान् दुःख का कारण बनती थी। स्त्रीजाति को सन्तति पर कितना मोह और कितना प्यार होता है, यह स्त्रीजाति के हृदय से पूछा जा सकता है। वह अपनी सन्तान के लिए शारीरिक और मानसिक एवं आर्थिक तथा अपने अन्य स्वार्थों का कितना बलिदान करती है, यह भी जिन्हें मातृहृदय की परख है, उन से छिपा हुआ नहीं है, अर्थात् सन्तान की प्राप्ति की स्त्रीजाति के हृदय में इतनी लग्न और लालसा होती है कि उस के लिए वह असह्य से असह्य कष्ट झेलने के लिए भी सन्नद्ध रहती है। और यदि उसे सन्तान की प्राप्ति और विशेष रूप पुत्र सन्तान की प्राप्ति हो जाए तो उस को जितना हर्ष होता है उसकी इयत्ता-सीमा कल्पना की परिधि से बाहर है। इस के विपरीत सन्तान का हो कर निरंतर नष्ट हो जाना तो उसके असीम दुःख का कारण बन जाता है। सन्तति का वियोग स्त्री-जाति को जितना असह्य होता है, उतना और किसी वस्तु का नहीं। यही कारण है कि भद्रादेवी निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहती है। उसे रात को निद्रा भी नहीं आती, दिन को चैन नहीं पड़ती। आज तक उस को जितनी सन्तानें हुईं सब उत्पन्न होते ही काल के विकराल प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [457