SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मृगाग्राम नामक नगर में पुल्लिग का प्रयोग कर लेना / इसी प्रकार उद्यानादि के विषय में जान लेना। विजय राजा के साथ "वण्णओ" का जो प्रयोग है उससे औपपातिक सूत्रगत राजवर्णन समझ लेना। इसी भांति मृगादेवी के विषय में "वण्णओ" पद से औपपातिक सूत्रगत राज्ञी वर्णन की ओर संकेत किया गया है। महारानी मृगादेवी ने अपने तनुज मृगापुत्र की इस नितान्त घोर दशा में भी रक्षा करने में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रक्खी, उस श्वास लेते हुए मांस के लोथड़े को एक गुप्त प्रदेश में सुरक्षित रक्खा और समय पर उसे खान-पान पहुंचाया तथा दुर्गन्धादि से किसी प्रकार की भी घृणा न करते हुए अपने हाथों से उसकी परिचर्या की। यह सब कुछ अकारण मातृस्नेह को ही आभारी है, इसी दृष्टि से नीतिकारों ने "पितः शतगुणा माता गौरवेणातिरिच्यते" कहा है और "मातृदेवो भव" इत्यादि शिक्षा वाक्य भी तभी चरितार्थ होते हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गर्भावास में माता-पिता के जीवित रहने तक दीक्षा न लेने का जो संकल्प किया था, उसका मातृस्नेह ही तो एक कारण था। जैनागमों में जीव के छह संस्थान (आकार) माने हैं। उन में छठा संस्थान हुण्डक है। हुण्डक का अर्थ है-जिस शरीर के समस्त अवयव बेढब हों अर्थात् जिस में एक भी अवयव शास्त्रोक्त-प्रमाण के अनुसार न हो। मृगापुत्र हुण्डक संस्थान वाला था, इस बात को बताने के लिए सूत्रकार ने उसे 'हुण्ड' कहा है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रमाण में अंग और उपांग की रचना होनी चाहिए थी, उस प्रकार की रचना का उस (मृगापुत्र) के शरीर में अभाव था, जिससे उस की आकृति बड़ी वीभत्स एवं दुर्दर्शनीय बन गई थी। . - सूत्रकार ने मृगापुत्र को "वायवे-वायव" भी कहा है। वायव शब्द से उनका अभिप्राय 'वातव्याधि से पीड़ित व्यक्ति' से है। वात-वायु के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि-रोग का नाम वातव्याधि है। चरकसंहिता (चिकित्सा-शास्त्र) अध्याय 20 में लिखा है कि वात के विकार से उत्पन्न होने वाले रोग असंख्येय होते हैं, परन्तु मुख्य रूप से उनकी (वातजन्य रोगों की) संख्या 80 है। नखभेद, विपादिका, पादशूल, पादभ्रंश, पादसुप्ति, और गुल्फग्रह इत्यादि 80 रोगों में से मृगापुत्र को कौन सा रोग था? एक था या अधिक थे ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में सूत्रकार और टीकाकार दोनों ही मौन हैं / वात-व्याधि से पीड़ित व्यक्ति के पीठ का जकड़ जाना, गरदन का टेढ़ा होना, अंगों का सुन्न रहना, मस्तकविकृत्ति इत्यादि 1. अंग शब्द से-१-मस्तक, २-वक्षःस्थल, ३-पीठ, ४-पेट, ५-६-दोनों भुजाएं, और ७-८-दोनों पांव, इन का ग्रहण होता है, तथा उपांग-शब्द से अंग के अवयवभूत कान, नाक, नेत्र एवं अंगुली आदि का बोध होता है। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [123
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy