SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टीका-सूत्रकार उस समय का वर्णन कर रहे हैं जब कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुरिमताल नगर के किसी उद्यान में विराजमान हो रहे थे। तब वीर प्रभु के पधारने पर वहां का वातावरण बड़ा शान्त तथा गम्भीर बना हुआ था। प्रभु का आगमन सुन कर नगर की जनता में उत्साह और हर्ष की लहर दौड़ गई। वह बड़ी उत्कण्ठा से भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान की ओर प्रस्थित होने लगी। उस में अनेक प्रकार के विचार रखने वाले व्यक्ति मौजूद थे। कोई कहता है कि मैं आज भगवान् से साधुवृत्ति को समझूगा, कोई कहता है कि मैं श्रावक धर्म को जानने का यत्न करूंगा, कोई कहता है कि मैं आज जीव, अजीव के स्वरूप को पूछंगा, कोई सोचता है कि जिस प्रभु का नाम लेने मात्र से सन्तप्त हुआ हृदय शान्त हो जाता है, उसके साक्षात् दर्शनों का तो कहना ही क्या है, इत्यादि शुभ विचारों से प्रेरित हुई जनता उद्यान की ओर चली जा रही थी। प्रजा की मनोवृत्ति से ही प्रायः राजा की मनोवृत्ति का ज्ञान हो जाया करता है। प्रायः उसी राजा की प्रजा धार्मिक विचारों की होती है जो स्वयं धर्म का आचरण करने वाला हो। पुरिमताल नगर के महीपति भी किसी से कम नहीं थे। वीर भगवान् के शुभागमन का समाचार पाते ही वे भी उठे और अपने कर्मचारियों को तैयारी करने की आज्ञा फरमाई। तथा बड़ी सजधज के साथ वीर भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकले और वीर भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए, तथा विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर भगवान् के सन्मुख उचित स्थान पर बैठ गए। नगर की अन्य जनता भी शान्ति-पूर्वक यथास्थान बैठ गई। .. इस प्रकार नागरिक और नरेश आदि के यथास्थान बैठ जाने के बाद भगवान् ने अपनी अमृत वाणी से अनेक सन्तप्त हृदयों को शान्त किया, उन्हें धर्म का उपदेश देकर कृतार्थ किया। तदनन्तर राजा और प्रजा दोनों ही भगवान् के चरणों में हार्दिक भाव से श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए अपने-अपने स्थान की ओर प्रस्थित हुए। - जनता के चले जाने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी जो कि तपश्चर्या की सजीव मूर्ति थे, षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त पुरिमताल नगर में भिक्षार्थ जाने की आज्ञा मांगने लगे। आज्ञा मिल जाने पर वे नगर की ओर प्रस्थित हुए, और पुरिमताल नगर के राजमार्ग में पहुंचे। वहां उन्होंने निनोक्त दृश्य देखा . बहुत से सुसज्जित हस्ती तथा शृंगारित घोड़े एवं कवच पहने हुए.अस्त्र-शस्त्रों से सन्नद्ध अनेक सैनिक पुरुष खड़े हैं। उन के मध्य में अवकोटक-बन्धन से बन्धा हुआ एक पुरुष है, जिसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया जा रहा है। उस के साथ ही उस को दिए गए दंड के कारण की-इसके अपने कर्म ही इस की इस दुर्दशा का कारण हैं, राजा आदि कोई अन्य नहीं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [351
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy