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________________ हैं-इस रूप से उद्घोषणा भी की जा रही थी। उद्घोषणा के अनन्तर राजकीय अधिकारी पुरुष उसे प्रथम चत्वर-चौंतरे पर बिठाते हैं, तत्पश्चात् उसके सामने उसके आठ चाचाओं (पिता के लघु भ्राताओं) को बड़ी निर्दयता के साथ मारते हैं, और नितान्त दयाजनक स्थिति रखने वाले उस पुरुष को काकिणी-मांस उस की देह से निकाले हुए छोटे-छोटे मांस-खण्ड खिलाते तथा रुधिर का पान कराते हैं। वहां से उठ कर दूसरे चौंतरे पर आते हैं, वहां उसे बिठाते हैं, वहां उस के सन्मुख उसकी आठ चाचियों को लाकर बड़ी क्रूरता से पीटते हैं इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवमें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें, सोलहवें, सतरहवें, और अठारहवें चौंतरे पर भी उसके निजी सम्बन्धियों को कशा से पीटते हैं। उन सम्बन्धियों के नाम का निर्देश मूलार्थ में आ चुका है। ___ इस उल्लेख में दंड की भयंकरता का निर्देश किया गया है। दण्डित व्यक्ति के अतिरिक्त उसके परिवार को भी दंड देना, दंड की पराकाष्ठा है। "-गोयमे जाव रायमग्गं-" यहां पठित जाव-यावत् - पद से "-छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरसीए सज्झायंकरेइ-"से लेकर "-रियं सोहेमाणे जेणेव पुरिमताले णगरे तेणेव उवागच्छइ, पुरिमताले णगरे उच्चणीयमज्झिमकुलाइं अडमाणे जेणेव-" यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या द्वितीय अध्ययन में दी जा चुकी है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का नाम समुल्लिखित है और यहां पुरिमताल नगर का। शेष वर्णन समान है। "-अवओडय० जाव उग्रोसेजमाणं-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से सूत्रकार ने सूत्रपाठ को संक्षिप्त कर के पूर्ववर्णित दूसरे अध्ययनगत "-उक्कित्तकण्णनासं, नेहतुप्पियगत्तं-" से लेकर "-चच्चरे चच्चरे खण्डपडहएणं-" यहां तक के पाठ के ग्रहण करने की सूचना दे दी है, जिस का दूसरे अध्ययन में उल्लेख किया जा चुका है। "-चच्चर-" शब्द का संस्कृत प्रतिरूप "-चत्वर-" होता है, जो कि कोषानुमत भी है। परन्तु टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने इसका संस्कृत प्रतिरूप “चर्चर" ऐसा माना है। "पढमंसि चच्चरंसि, प्रथमे चर्चरे स्थानविशेषे"। "-कलुणं-" यह पद क्रियाविशेषण है। इस की व्याख्या में वृत्तिकार लिखते हैं कि "-कलुणं त्ति करुणं करुणास्पदंतं पुरुषं, क्रियाविशेषणंचेदम्-"अर्थात् करुणास्पदकरुणा के योग्य को कलुण कहते हैं। "-काकिणीमांस-" का अर्थ होता है, जिस को मांस खिलाया जा रहा है, उसी मनुष्य के शरीर में से अथवा किसी भी अन्य मनुष्य के शरीर में से कौड़ी जैसे अर्थात् छोटे 352 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय - [.प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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