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________________ छोटे निकाले गए मांस के टुकड़े। ऐसे मांस खण्डों को खाना-काकिणीमांसभक्षण कहलाता -मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं-" की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है "-मित्राणि-सुहृदाः, ज्ञातयः-समानजातीयाः, निजका:-पितामातरश्च, स्वजना:मातुलपुत्रादयः, सम्बन्धिन:-श्वशुरशालादयः, परिजन:-दासीदासादिस्ततो द्वन्द्वः अतस्तान् तत्। अर्थात् मित्र-सुहृद् का नाम है, तात्पर्य यह है कि जो साथी, सहायक और शुभचिन्तक हो, उसे मित्र कहते हैं। ज्ञाति शब्द से समान जाति (बिरादरी) वाले व्यक्तियों का ग्रहण होता है। निजक पद माता-पिता आदि का बोधक है। स्वजन शब्द मामा के पुत्र आदि का परिचायक है, श्वशुर, साला आदि का ग्रहण सम्बन्धी शब्द से होता है। परिजन दास और दासी आदि का नाम है। "-चुल्लमाउयाओ-" इस पद के दो अर्थ किए जाते हैं-एक तो पिता के छोटे भाइयों की स्त्रियां, दूसरा-माता की लघुसपत्नियां अर्थात् पिता की दो स्त्रियां हों उन में छोटी स्त्री भी क्षुद्रमाता कहलाती है। टीकाकार के शब्दों में "-पितृलघुभ्रातृजायाः अथवा मातुर्लघुसपत्नी:-" यह कहा जा सकता है। "-णत्तुयावई-" इस पद के भी दो अर्थ होते हैं, जैसे कि (१)पौत्री-पोती के पति और (2) दौहित्री-दोहती के पति। "-अट्ठ चुल्लपिउए-" इत्यादि पदों से सूचित होता है कि वध्य व्यक्ति का परिवार बड़ा विस्तृत था और उसके साथ ही रहता था, अथवा राजा से मिलने के कारण वध्य व्यक्ति ने अपने पारिवारिक व्यक्तियों को बुला लिया हो, यह भी संभव हो सकता है। राजा से मिलने आदि का समस्त वृत्तान्त अग्रिम जीवनी के अवलोकन से स्पष्ट हो जाएगा। - वध्य व्यक्ति के सामने उसके परिवार को मारने तथा पीटने का तात्पर्य तो यह प्रतीत होता है कि वध्य व्यक्ति की मनोवृत्ति को अधिक से अधिक आघात पहुंचाया जाए। अथवाइस का यह मतलब भी होता है कि उसके कामों में जो भी हिस्सेदार हैं, उन्हें भी दण्डित किया जाए। या यह कि उन की ताड़ना से दूसरी जनता को शिक्षा मिले कि भविष्य में अगर किसी ने अपराध किया तो अपराधी के अतिरिक्त उसके सगे सम्बन्धी भी दण्डित होने से नहीं बच सकेंगे ताकि आगे को अपराध की बहुलता न होने पाए, इत्यादि। अथवा "-तते णं तं पुरिसं रायपुरिसा-" इत्यादि पदों में पढ़े गए "अग्गओ" पद 1. "-णत्तुयावई-"त्ति-नप्तृकापतीन्-पौत्रीणां दौहित्रीणां वा भर्तृन्-" (टीकाकारः) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [353
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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