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________________ मारते हैं, मार कर। कसप्पहारेहि-कशा के प्रहारों से। तालेमाणे-ताडित करते हुए तथा। कलुणंदयनीय-दया के योग्य उस पुरुष को। कागिणीमंसाइं-उस की देह से काटे हुए मांस-खण्डों को। खाति-खिलाते हैं तथा। रुहिरपाणं च-रुधिर का पान। पाएंति-कराते हैं। मूलार्थ-उस काल तथा उस समय में पुरिमताल नगर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद्-जनता नगर से निकली तथा राजा भी प्रभु के दर्शनार्थ चला। भगवान् ने धर्म का प्ररूपण किया।धर्मोपदेश को श्रवण कर राजा तथा परिषद् वापिस अपने-अपने स्थान को लौट आई। उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ-बड़े शिष्य श्री गौतम स्वामी यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने अनेक हस्तियों, अश्वों तथा सैनिकों की भान्ति शस्त्रों से सुसज्जित एवं कवच पहने हुए अनेकों पुरुषों को और उन पुरुषों के मध्य में अवकोटक बन्धन से युक्त यावत् उद्घोषित एक पुरुष को देखा। ___ तदनन्तर राजपुरुष उस पुरुष को प्रथम चत्वर पर बैठा कर उस के आगे लघुपिताओं-चाचाओं को मारते हैं। तथा कशादि के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष करुणाजनक स्थिति को प्राप्त हुए उस पुरुष को-उसके शरीर में से काटे हुए मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों को खिलाते हैं और रुधिर का पान कराते हैं। तदनन्तर द्वितीय चत्वर पर उस की आठ लघुमाताओं-चाचियों को उस के आगे ताड़ित करते हैं, इसी प्रकार तीसरे चत्वर पर आठ महापिताओं-पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं-तायों को, चौथे पर आठ महामाताओं-पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं की धर्मपत्नियों-ताइयों को, पांचवें पर पुत्रों को, छठे पर पुत्रवधुओं को, सातवें पर जामाताओं को, आठवें पर लड़कियों को, नवमें पर नप्ताओं को अर्थात् पौत्रों और दोहित्रों को, दसवें पर लड़के और लड़की की लड़कियों को अर्थात् पौत्रियों और दौहित्रियों को, एकादशवें पर नप्तृकापतियों को अर्थात् पौत्रियों और दौहित्रियों के पतियों को, बारहवें पर नप्तृभार्याओं को अर्थात् पौत्रों और दौहित्रों की स्त्रियों को, तेरहवें पर पिता की बहिनों के पतियों को अर्थात् फूफाओं को, चौदहवें पर पिता की भगिनियों को, पन्द्रहवें पर माता की बहिनों के पतियों को, सोलहवें पर मातृष्वसाओं अर्थात् माता की बहिनों को, सतरहवें पर मातुलानी-मामा की स्त्रियों को, अठारहवें पर शेष मित्र, ज्ञातिजन, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को उस पुरुष के आगे मारते हैं तथा कशा ( चाबुक ) के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष दयनीय-दया के योग्य उस पुरुष को, उस के शरीर से निकाले हुए मांस के टुकड़े खिलाते और रुधिर का पान कराते हैं। 350 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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