________________ ८९-शुभनामकर्म-इस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं। हाथ, सिर आदि शरीर के अवयवों के स्पर्श होने पर किसी को अप्रीति नहीं होती। जैसे-कि पांव के स्पर्श से होती है, यही नाभि के ऊपर के अवयवों में शुभत्व है। * ९०-सुभगनामकर्म-इस कर्म के उदय से किसी प्रकार का उपकार किए बिना या किसी तरह के सम्बन्ध के बिना भी जीव सब का प्रीतिभाजन बनता है। ९१-सुस्वरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और प्रीतिकर होता है। जैसे कि कोयल, मोर आदि जीवों का स्वर प्रिय होता है। ९२-आदेयनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य होता है। ९३-यश:कीर्तिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से संसार में यश और कीर्ति फैलती है। किसी एक दिशा में नाम (प्रशंसा) हो तो उसे कीर्ति कहते हैं और सब दिशाओं में होने वाले नाम को यश कहते हैं। अथवा दान, तप आदि के करने से जो नाम होता है वह कीर्ति और शत्रु पर विजय प्राप्त करने से जो नाम होता है, वह यश कहलाता है। ९४-स्थावरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव स्थिर रहते हैं। सर्दी, गर्मी से बचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्वयं नहीं जा सकते। जैसे वनस्पति के जीव। ९५-सूक्ष्मनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को सूक्ष्मशरीर (जो किसी को रोक न सके और न स्वयं ही किसी से रुक सके) प्राप्त होता है। इस नामकर्म वाले जीव 5 स्थावर हैं और ये सब लोकाकाश में व्याप्त हैं, आंखों से नहीं देखे जा सकते। ___९६-अपर्याप्तनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता। ९७-साधारणनामकर्म-इस कर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही शरीर मिलता है। अर्थात् अनन्त जीव एक ही शरीर के स्वामी बनते हैं। जैसे आलू, मूली आदि के जीव। - ९८-अस्थिरनामकर्म-इस कर्म के उदय से कान, भौंह, जिह्वा आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं। . ९९-अशुभनामकर्म-इस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव पैर आदि अशुभ होते हैं। पैर का स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही इस का अशुभत्व है। १००-दुर्भगनामकर्म-इस कर्म के उदय से उपकार करने वाला भी अप्रिय लगता है। १०१-दुःस्वरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश-सुनने में अप्रिय, लगता है। १०२-अनादेयनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का वचन युक्तियुक्त होते हुए भी प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [49