SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के उदय से है और लोहितवर्णनामकर्म के उदय से प्रकाश करता है। ७९-उद्योतनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर शीतल प्रकाश फैलाता है। लब्धिधारी मुनि जब वैक्रियशरीर धारण करते हैं तब उन के शरीर में से, देव जब अपने मूल शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर धारण करते हैं तब उस शरीर में से, चन्द्रमण्डल, नक्षत्रमण्डल और तारामण्डल के पृथिवीकायिक जीवों के शरीर में से, जुगुनू, रत्न और प्रकाश वाली औषधियों से जो प्रकाश निकलता है, वह उद्योतनामकर्म के कारण होता है। . ८०-अगुरुलघुनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर न भारी होता है और न हलका, अर्थात् इस कर्म के प्रभाव से जीवों का शरीर इतना भारी नहीं होता कि जिसे संभालना कठिन हो जाए और इतना हलका नहीं होता कि हवा में उड़ जाए। ८१-तीर्थंकरनामकर्म-इस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। ८२-निर्माणनामकर्म-इस कर्म के उदय से अंगोपांग शरीर में अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित होते हैं। इसे चित्रकार की उपमा दी गई है। जैसे चित्रकार हाथ, पैर आदि अवयवों को यथोचित स्थान पर बना देता है, उसी प्रकार निर्माणनामकर्म का काम अवयवों को उचित स्थान में व्यवस्थित करना होता है। ८३-उपघातनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों-प्रतिजिह्वा (पड़जीभ) चौरदन्त (ओठ के बाहर निस्सृत दांत), रसौली, छटी अंगुली आदि से क्लेशं पाता ८४-त्रसनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय द्वीन्दिय आदि की प्राप्ति होती है। ८५-बादरनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर बादर होता है। नेत्रादि के द्वारा जिस की अभिव्यक्ति हो सके वह बादर-स्थूल कहलाता है।' ८६-पर्याप्तनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं। पर्याप्ति का अर्थ है-जिस शक्ति के द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में बदल देने का काम होता है। ८७-प्रत्येकनामकर्म-इस कर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी बनता है। जैसे-मनुष्य, पशु, पक्षी तथा आम्रादि फलों के एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता ८८-स्थिरनामकर्म-इस कर्म के उदय से दान्त, हड्डी, ग्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर अर्थात् निश्चल होते हैं। 48 ] श्री विपाक सूत्रम् - [प्राक्कथन
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy