________________ विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि सीधे जाते हुए बैलों को जैसे नाथ के द्वारा घुमा कर दूसरे मार्ग पर चलाया जाता है, उसी तरह यह कर्म भी स्वभावतः समश्रेणि पर चलते हुए जीव को घुमा कर विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान देवगति को प्राप्त करा देता है। ___७१-मनुष्यानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान मनुष्यगति को प्राप्त करता है। ७२-तिर्यञ्चानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समश्रेणी से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान तिर्यञ्चगति को प्राप्त करता है। ७३-नरकानुपूर्वीनामकर्म-इस कर्म के प्रभाव से समश्रेणि से प्रस्थित जीव विश्रेणिस्थित अपने उत्पत्तिस्थान नरकगति को प्राप्त करता है। ७४-शुभविहायोगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ होती है जैसे कि-हाथी, बैल, हंसं आदि की चाल शुभ होती है। ७५-अशुभविहायोगतिनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव की चाल अशुभ होती है। जैसे कि ऊंट, गधा आदि की चाल अशुभ होती है। - ७६-पराघातनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव बड़े-बड़े बलवानों की दृष्टि में भी अजेय समझा जाता है। अर्थात् जिस जीव को इस कर्म का उदय होता है वह इतना प्रबल मालूम देता है कि बड़े-बड़े बली भी उस का लोहा मानते हैं। राजाओं की सभा में उस के दर्शन मात्र से अथवा केवल वाग्कौशल से बलवान् विरोधियों के भी छक्के छूट जाते हैं। ७७-उच्छ्वासनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छ्वासलब्धि से युक्त होता है। शरीर से बाहर की हवा को नासिका द्वारा अन्दर खींचना श्वास है और शरीर के अन्दर की हवा को नासिका द्वारा बाहर छोड़ना उच्छ्वास कहलाता है। ___७८-आतपनामकर्म-इस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न हो कर भी उष्ण प्रकाश करता है। सूर्यमण्डल के बाहर एकेन्द्रियकाय जीवों का शरीर ठण्डा होता है, परन्तु आतपनामकर्म के उदय से वह उष्ण प्रकाश करता है। सूर्यमण्डल के एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर अन्य जीवों को आतपनामकर्म का उदय नहीं होता। यद्यपि अग्निकाय के जीवों का शरीर भी उष्ण प्रकाश करता है परन्तु वह आतपनामकर्म के उदय से नहीं किन्तु उष्णस्पर्शनामकर्म है तब आनुपूर्वीनामकर्म उस को विश्रेणिपतित उत्पत्तिस्थान पर पहुँचा देता है। जीव का उत्पत्तिस्थान यदि समश्रेणि में हो तो आनुपूर्वीनामकर्म का उदय नहीं होता अर्थात् वक्रगति में आनुपूर्वी नामकर्म का उदय होता है, ऋजु गति में नहीं। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [47