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________________ थी और उस की कोई बराबरी नहीं कर सकता था। १०-पुरुषवरगन्धहस्ती-भगवान् पुरुषों में गन्धहस्ती के समान थे। गन्धहस्ती एक विलक्षण हाथी होता है। उस में ऐसी सुगन्ध होती है कि सामान्य हाथी उस की सुगन्ध पाते ही त्रस्त हो भागने लगते हैं। वे उस के पास नहीं ठहर सकते। भगवान् को गन्धहस्ती कहने का अर्थ यह है कि जहां भगवान् विचरते थे वहां अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि कोई भी उपद्रव नहीं होने पाता था। ११-लोकोत्तम-लोकशब्द से स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोक, इन तीनों का ग्रहण होता है। तीनों लोकों में जो ज्ञान आदि गुणों की अपेक्षा सब से प्रधान हो, वह लोकोत्तम कहलाता है। १२-लोकनाथ-नाथ शब्द का अर्थ है-योग (अप्राप्त वस्तु का प्राप्त होना) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की संकट के समय पर रक्षा करना) करने वाला नाथ कहलाता है। लोक का नाथ लोकनाथ कहा जाता है। सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की प्राप्ति कराने के कारण तथा उन से स्खलित होने वाले मेघकुमार आदि को स्थिर करने के कारण भगवान् को लोकनाथ कहा गया है। १३-लोकहित-लोक का हित करने वाले को लोकहित कहते हैं। भगवान् महावीर मोहनिद्रा में प्रसुप्त विश्व को जगा कर आध्यात्मिकता एवं सच्चरित्रता की पुण्यविभूति से मालामाल कर उस का हित सम्पादित करते थे। १४-लोकप्रदीप-लोक के लिए दीपक की भान्ति प्रकाश देने वाला लोकप्रदीप कहा जाता है। भगवान् लोक को यथावस्थित वस्तु स्वरूप दिखाते हैं, इसलिए इन्हें लोकप्रदीप कहा जाता है। १५-लोकप्रद्योतकर-प्रद्योतकर सूर्य का नाम है। भगवान् महावीर लोंक के सूर्य थे। अपने केवलज्ञान के प्रकाश को विश्व में फैलाते थे और जनता के मिथ्यात्वरूप अन्धकार को नष्ट कर के उसे सन्मार्ग सुझाते थे। इसलिए भगवान् को लोकप्रद्योतकर कहा गया है। १६-अभयदय-अभय-निर्भयता का दान देने वाले को अभयदय कहते हैं। भगवान् महावीर तीन लोक के अलौकिक एवं अनुपम दयालु थे। विरोधी से विरोधी के प्रति भी उनके हृदय में करुणा की धारा बहा करती थी। चण्डकौशिक जैसे भीषण विषधर की लपलपाती ज्वालाओं को भी करुणा के सागर वीर ने शांत कर डाला था। इसलिए उन्हें अभयदय कहा गया है। १७-चक्षुर्दय-आंखों का देने वाला चक्षुर्दय कहलाता है। जब संसार के ज्ञानरूप 774 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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