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________________ नेत्रों के सामने अज्ञान का जाला आ जाता है, उसे सत्यासत्य का कुछ विवेक नहीं रहता, तब भगवानू संसार को ज्ञाननेत्र देते हैं, अज्ञान का जाला साफ करते हैं। इसीलिए भगवान को चक्षुर्दय कहा गया है। १८-मार्गदय-मार्ग के देने वाले को मार्गदय कहते हैं। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। भगवान् महावीर ने इस का वास्तविक स्वरूप संसार के सामने रखा था, अतएव उन को मार्गदय कहा गया है। १९-शरणदय-शरण त्राण को कहते हैं। आने वाले तरह-तरह के कष्टों से रक्षा करने वाले को शरणदय कहा जाता है। भगवान् की शरण में आने पर किसी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहने पाता था। २०-जीवदय-संयम जीवन के देने वाले को जीवदय कहते हैं। भगवान् की पवित्र सेवा में आने वाले अनेकों ने संयम का आराधन करके परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध किया था। २१-बोधिदय-बोधि सम्यक्त्व को कहते हैं। सम्यक्त्व का देने वाला बोधिदय कहलाता है। २२-धर्मदय-धर्म के दाता को धर्मदय कहते हैं। भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम तथा तपरूप धर्म का संसार को परम पावन अनुपम सन्देश दिया था। २३-धर्मदेशक-धर्म का उपदेश देने वाले को धर्मदेशक कहते हैं / भगवान् श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का वास्तविक मर्म बताते हैं, इसलिए उन्हें धर्मदेशक कहा गया है। २४-धर्मनायक-धर्म के नेता का नाम धर्मनायक है। भगवान् धर्ममूलक सदनुष्ठानों का तथा धर्मसेवी व्यक्तियों का नेतृत्व किया करते थे। . २५-धर्मसारथि-सारथि उसे कहते हैं जो रथ को निरुपद्रवरूप से चलाता हुआ उस की रक्षा करता है, रथ में जुते हुए बैल आदि प्राणियों का संरक्षण करता है। भगवान् धर्मरूपी रथ के सारथि हैं। भगवान् धर्मरथ में बैठने वालों के सारथि बन कर उन्हें निरुपद्रव स्थान अर्थात् मोक्ष में पहुँचाते हैं। २६-धर्मवर-चतुरन्त-चक्रवर्ती-पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीनों दिशाओं में समुद्र-पर्यन्त और उत्तर दिशा में चूलहिमवन्त पर्वतपर्यन्त के भूमिभाग का जो अन्त करता है अर्थात् इतने विशाल भूखण्ड पर जो विजय प्राप्त करता है, इतने में जिस की अखण्ड और अप्रतिहत आज्ञा चलती है, उसे चतुरन्तचक्रवर्ती कहा जाता है। चक्रवर्तियों में प्रधान चक्रवर्ती को वरचतुरन्तचक्रवर्ती कहते हैं। धर्म के वरचतुरन्तचक्रवर्ती को धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [775
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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