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________________ आदि पांच धाय माताओं के द्वारा पोषित होता हुआ यावत् वृद्धि को प्राप्त होने लगा। टीका-पुत्र का जन्म भी माता-पिता के लिए अथाह हर्ष का कारण होता है। पिता की अपेक्षा माता को पुत्र-प्राप्ति में और भी अधिक प्रमोदानुभूति होती है, क्योंकि पुत्र-प्राप्ति के लिए वह (माता) तो अपने हृदय को दृढ़ बना कर कभी-कभी असंभव को भी संभव बना देने का भगीरथ प्रयत्न करने से नहीं चूकती। ऐसी माता यदि अपने विचारों को सफलता के रूप में पाए तो वर्षा के अनन्तर विकसित कमल की भान्ति पुलकित हो उठती है, और वह स्वाभिमान में फली नहीं समाती। प्रसन्नता का कारण उस की बहत दिनों से गंथी हर्ड विचारमाला का गले में पड़ जाना ही समझना चाहिए। आज स्कन्दश्री भी उन्हीं महिलाओं में से है, जिनका हृदय प्रफुल्लित सरोज की भान्ति प्रसन्न है। स्कन्दश्री अपने नवजात शिशु की मुखाकृति का अवलोकन करके प्रसन्नता के मारे फूली नहीं समाती। पुत्र के जन्म से सारे घर में तथा परिवार में खुशी मनाई जा रही है। आज विजय के हर्ष की भी कोई सीमा नहीं, बधाई देने वालों को वह हृदय खोल कर द्रव्य तथा वस्त्र भूषणादि दे रहा है और बालक के जन्म दिन से लेकर दस दिन पर्यन्त उत्सव मनाने का आयोजन भी बड़े उत्साह के साथ किया जा रहा है। जन्मोत्सव मनाने के लिए एक विशाल मण्डप तैयार किया गया, सभी मित्रों तथा सगे-सम्बन्धियों को आमन्त्रित किया गया। सभी लोग उत्साहपूर्वक नवजात शिशु के जन्मोत्सव में सम्मिलित हुए और सब ने विजय को बधाई देते हुए बालक के दीर्घायु होने की शुभेच्छा प्रकट की। तदनन्तर विजय चोरसेनापति ने ग्यारहवें दिन सब को सहभोज दिया अर्थात् विविध भान्ति के अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों से अपने मित्रों, ज्ञातिजनों तथा अन्य पारिवारिक व्यक्तियों को प्रेम पूर्वक जिमाया। इधर स्कन्दश्री की सहचरियों ने भी बाहर से आई हुई महिलाओं के स्वागत में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी। भोजनादि से निवृत्त होकर सभी उत्सव मण्डप में पधारे और यथास्थान बैठ गए। सब के बैठ जाने पर विजय सेनापति ने आगन्तुकों का स्वागत करते हुए कहा __आदरणीय बन्धुओ ! आप सज्जनों का यहां पर पधारना मेरे लिए बड़े गौरव और सौभाग्य की बात है, तदर्थ मैं आपका अधिक से अधिक आभारी हूं। विशेष बात यह है कि जिस समय यह बालक गर्भ में आया था उस समय इस की माता स्कन्दश्री को यह दोहद उत्पन्न हुआ था। (इसके बाद उसने दोहद-सम्बन्धी सारा वृत्तान्त कह सुनाया)। उसकी पूर्ति भी यथाशक्ति कर दी गई थी, दूसरे शब्दों में-उस दोहद को भग्न नहीं होने दिया गया अर्थात् 1. इन पदों का अर्थ प्रथम अध्याय के टिप्पण में लिखा जा चुका है। 380 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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