SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त दृष्टि का अनुसरण करने को विज्ञ जनता से अनुरोध करते हुए उस की भ्रान्त धारणाओं में समुचित शोधन कराने का सर्वतोभावी श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। भगवन् ! आप को तो उनके पुनीत दर्शन तथा मधुर वचनामृत के पान करने का सौभाग्य चिरकाल तक प्राप्त होता रहा है। इसके अतिरिक्त उन की पुण्य सेवा में रह कर उनके परम पावन चरणों की धूलि से मस्तक को स्पर्शित करके उसे यथार्थरूप में उत्तमांग बनाने का सद्भाग्य भी आप को प्राप्त है। इस लिए आप कृपा करें और बतलायें कि उन्होंने विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पांचवें अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? क्योंकि उसके चतुर्थ अध्ययनगत अर्थ को तो मैंने आप श्री से श्रवण कर लिया है। अब मुझे आप से पांचवें अध्ययन के अर्थ को सुनने की इच्छा हो रही है। श्री जम्बू स्वामी ने अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए श्री सुधर्मा स्वामी से जो विनम्र निवेदन किया था, उसी को सूत्रकार ने उक्खेवो-उत्क्षेप- पद से अभिव्यक्त किया है। उत्क्षेप पद का अर्थ है-प्रस्तावना। प्रस्तावना रूप सूत्रपाठ निम्नोक्त है जति णं भन्ते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? इन पदों का अर्थ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है। जम्बू स्वामी की 'सानुरोध प्रार्थना पर श्री सुधर्मा स्वामी ने श्री वीरभाषित पंचम अध्ययन का अर्थ सुनाना आरम्भ किया जिस का वर्णन ऊपर मूलार्थ में किया जा चुका है, जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता। -रिद्ध- यहां के बिन्दु से संसूचित पाठ तथा –महया-यहां के बिन्दु से अभिमत पाठ भी द्वितीय अध्याय में सूचित कर दिया गया है। तथा –अहीण जुवराया- यहां के बिन्दु से अपेक्षित-अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरे-से लेकर -सुरूवे-यहां तक का पाठ भी द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। पाठक वहीं पर देख सकते हैं। . -रिउव्वेय०-यहां के बिन्दु से -जजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय-कुसले-इस पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। अर्थात् सोमदत्त पुरोहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था। अब सूत्रकार कौशाम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने आदि का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहते हैं मूल-तेणं कालेणं 2 समणे भगवं महावीरे समोसरिए। तेणं कालेणं 2 भगवं गोतमे तहेव जाव रायमग्गं ओगाढे। तहेव पासति हत्थी, आसे, पुरिसे प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [487
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy