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________________ णाम-नामक। पुरोहिए-पुरोहित / होत्था-था, जो कि।रिउव्वेय०-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था। तस्स णं-उस। सोमदत्तस्स-सोमदत्त। पुरोहियस्स-पुरोहित की। वसुदत्ता-वसुदत्ता। णाम-नाम की। भारिया-भार्या। होत्था-थी। तस्स णं-उस। सोमदत्तस्स-सोमदत्त का। पुत्ते-पुत्र। वसुदत्ताए-वसुदत्ता का। अत्तए-आत्मज। बहस्सइदत्ते-बृहस्पतिदत्त। णाम-नामक। दारए-बालक। होत्था-था। जो कि / अहीण-अन्यून एवं निर्दोष पञ्चेन्द्रिय शरीर वाला था। ____मूलार्थ-पंचम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की भावना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए। हे जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही उस काल तथा उस समय कौशाम्बी नाम की ऋद्धभवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-आन्तरिक और बाह्य उपद्रवों के भय से शून्य, और समृद्धि से परिपूर्ण नगरी थी। उसके बाहर चन्द्रावतरण नाम का उद्यान था, उसमें श्वेतभद्र नामक यक्ष का स्थान था। उस कौशाम्बी नगरी में शतानीक नामक एक हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् प्रतापी राजा राज्य किया करता था। उस की . . मृगावती नाम की देवी-रानी थी। उस शतानीक का पुत्र और मृगावती का आत्मज उदयन नाम का एक कुमार था जो कि सर्वेन्द्रिय सम्पन्न अथच युवराज पद से अलंकृत था। उस उदयन कुमार की पद्मावती नाम की एक देवी थी। ___ उस शतानीक का सोमदत्त नाम का एक पुरोहित था जो कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का पूर्ण ज्ञाता था। उस सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता नाम की भार्या थी। तथा सोमदत्त का पुत्र और वसुदत्ता का आत्मज बृहस्पति दत्त नाम का एक सर्वांगसम्पन्न और रूपवान बालक था। टीका-विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर अब पांचवें अध्ययन का आरम्भ किया जाता है। इस का उत्क्षेप अर्थात् प्रस्तावना का अनुसंधान इस प्रकार है श्री जम्बू स्वामी ने अपने गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी की पुनीत सेवा में उपस्थित हो कर कहा कि भगवन् ! श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने निस्संदेह संसार पर महान् उपकार किया है। उन की समभावभावितात्मा ने व्यवहारगत ऊंच नीच के भेदभाव को मिटा कर सर्वत्र आत्मगत समानता की ओर दृष्टिपात करने का जो आचरणीय एवं आदरणीय आदर्श संसार के सामने उपस्थित किया है वह उन की मानवसंसार को अपूर्व देन है। प्रतिकूल भावना रखने वाले जनमान्य व्यक्तियों को अपने विशिष्ट ज्ञान और तपोबल से अनुकूल बना कर उनके द्वारा धार्मिक प्रदेश में जो समुचित प्रगति उत्पन्न की है वह उन्हीं को आभारी है, एवं परस्पर विरोधी साम्प्रदायिक विचारों को समन्वित करने के लिए जिस सर्वनयगामिनी प्रामाणिक दृष्टि 486 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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