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________________ बोध बढ़ाने के लिए, अथवा जिन लोगों को प्रश्न पूछना नहीं आता, या जिन्हें इस विषय में विपरीत धारणा हो रही है उन के लाभ के लिए, उन्हें बोध कराने के लिए गौतम स्वामी ने यह प्रश्न पूछा है। भले ही गौतम स्वामी उस प्रश्न का समाधान करने में समर्थ होंगे तथापि भगवान् के मुखारविन्द से निकलने वाला प्रत्येक शब्द विशेष प्रभावशाली और प्रामाणिक होता है, इस विचार से ही उन्होंने भगवान के द्वारा इस प्रश्न का उत्तर चाहा है। ___ तात्पर्य यह है कि गौतम स्वामी जानते हुए भी अनजानों की वकालत करने के लिए, अपने ज्ञान में विशदता लाने के लिए, शिष्यों को ज्ञान देने के लिए और अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न कराने के लिए यह प्रश्न कर सकते हैं। अपने वचन में प्रतीति उत्पन्न कराने का अर्थ है-मान लीजिए किसी महात्मा ने किसी जिज्ञासु को किसी प्रश्न का उत्तर दिया, लेकिन उस जिज्ञासु को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि इस विषय में भगवान् न मालूम क्या कहते ? उस ने जा कर भगवान से वही प्रश्न पूछा। भगवान् ने भी वही उत्तर दिया। श्रोता को उन महात्मा के वचनों पर प्रतीति हुई / इस प्रकार अपने वचनों की दूसरों को प्रतीति कराने के लिए भी स्वयं प्रश्न किया जा सकता है। ___ इस के अतिरिक्त सूत्र रचना का क्रम गुरु शिष्य के सम्वाद में होता है। अगर शिष्य नहीं होता तो गुरु स्वयं शिष्य बनता है। इस तरह सुधर्मा स्वामी. इस प्रणाली के अनुसार भी गौतम स्वामी और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तर करा सकते हैं। अस्तु, निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि गौतम स्वामी ने उक्त कारणों में से किस कारण से प्रेरित हो कर प्रश्न किया था। श्री गौतम गणधर के उक्त प्रश्न का श्रमण भगवान् महावीर ने जो उत्तर दिया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेण तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे नामं नयरे होत्था, रिद्धः। तत्थ णं हत्थिणाउरे णगरे सुणंदे णामं राया होत्था महया हि / तत्थ णं हत्थिणाउरे नगरे बहुमझदेसभाए महं एगे गोमंडवे होत्था, अणेगखंभसयसंनिविटे, पासाइए 4, तत्थ णं बहवे णगरगोरूवा णं सणाहा य अणाहा य णगरगावीओ य णगरबलीवद्दा य णगरपड्डियाओ यणगरवसभा य पउरतणपाणिया निब्भया निरुवसग्गा सुहंसुहेणं परिवसंति। ___ छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे 264 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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