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________________ नहि नामाऽभोगः छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति।यस्माद्ज्ञानावरणंज्ञानावरणप्रकृति कर्म॥१॥ इति। अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभवति, स्वकीयबोधसंवादनार्थम्, अज्ञलोकबोधनार्थम्, शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्थम्, सत्ररचनाकल्पसंपादनार्थञ्चेति-" इन शब्दों का भावार्थ निम्नोक्त है प्रश्न-गौतम स्वामी के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि द्वादशांगी के रचयिता हैं, सकलश्रुत-विषय के ज्ञाता हैं, निखिल संशयों से अतीत-रहित (जिन के सम्पूर्ण संशय विनष्ट हो चुके) हैं तथा जो सर्वज्ञकल्प अर्थात् सर्व जानातीति सर्वज्ञः -विश्व के भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन समस्त पदार्थों का यथावत् ज्ञान रखने वाला, के समान हैं। कहा भी है कि दूसरों के पूछने पर यह छद्मस्थ (सम्पूर्ण ज्ञान से वञ्चित) गौतम स्वामी संख्यातीत भवों-जन्मों का कथन करने वाले और अतिशय ज्ञान वाले हैं, फिर उन्होंने अर्थात् अनगार गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से यह प्रश्न किया-भदन्त ! यह वध्य पुरुष पूर्वभव में कौन था ? आदि क्यों पूछा ? सारांश यह है कि छद्मस्थ भगवान् गौतम जब कि दूसरों के पूछने पर संख्यातीत भवों का वर्णन करने वाले अथ च संशयातीत माने जाते हैं तो फिर उन्होंने भगवान् के सन्मुख अपने संशय को समाधानार्थ क्यों रखा ? उत्तर-उपरोक्त प्रश्न का समाधान यह है कि शास्त्र में गौतम स्वामी के जितने गुण वर्णन किए गए हैं उन में वे सभी गुण विद्यमान हैं, वे सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं और संशयातीत भी हैं। ये सब होने पर भी गौतम स्वामी अभी छद्मस्थ हैं। छद्मस्थ होने से उन में अपूर्णता का होना असंभव नहीं अर्थात् छद्मस्थ में ज्ञानातिशय होने पर भी न्यूनता-कमी रहती ही है, इसलिए कहा है कि छद्मस्थ के अनाभोग (अपरिपूर्णता अथवा अनुपयोग) नहीं है, यह बात नहीं है, तात्पर्य यह है कि छद्मस्थ का आत्मा विकास की उच्चतर भूमिका तक तो पहुंच जाता है.परन्तु वह आत्मविकास की पराकाष्ठा को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि अभी उस में ज्ञान को आवृत करने वाले ज्ञानावरणीय कर्म की सत्ता विद्यमान है, जब तक ज्ञानावरणीय कर्म का समूल नाश नहीं होता, तब तक आत्मा में तद्गत शक्तियों का पूर्णविकास नहीं होता। इसलिए चतुर्विध ज्ञान सम्पन्न होने पर भी गौतम स्वामी में छद्मस्थ होने के कारण उपयोगशून्यता का अंश विद्यमान था जिस का केवली-सर्वज्ञ में सर्वथा असद्भाव होता है। . एक बात और है कि यह नियम नहीं है कि अनजान ही प्रश्न करे जानकार न करे। जो जानता है वह भी प्रश्न कर सकता है। कदाचित् गौतम स्वामी इन प्रश्नों का उत्तर जानते भी हों तब भी प्रश्न करना संभव है। आप कह सकते हैं कि जानी हुई बात को पूछने की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है कि उस बात पर अधिक प्रकाश डलवाने के लिए अपना प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [263
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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