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________________ आज्ञा है। दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में लिखा है सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता तं पुव्वमेव सेहतरागस्स उवदंसेइ पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहस्स 3 / [दशाश्रुत० 3 दशा, 15] अर्थात् शिष्य अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों को लेकर गुरुजनों से पूर्व ही यदि शिष्य आदि को दिखाता है तो उस को आशातना लगती है। तथा आहार दिखाने के बाद फिर आलोचना करनी भी आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि अमुक पदार्थ अमुक गृहस्थ के घर से प्राप्त किया। अमुक गृहस्थ ने इस प्रकार भिक्षा दी, अमुक मार्ग में अमुक पदार्थ का अवलोकन किया एवं अमुक दृश्य को देख कर अमुक प्रकार की विचार-धारा उत्पन्न हुई इत्यादि प्रकार की आलोचना भी सर्व प्रथम रत्नाधिक से ही करे अन्यथा आशातना लगती है जिस से सम्यग् दर्शन में क्षति पहुंचने की सम्भावना रहती है। इसी शास्त्रीय दृष्टि को सन्मुख रख कर गौतम स्वामी ने लाया हुआ आहार सर्वप्रथम भगवान को ही दिखाया, तदनन्तर वन्दना नमस्कार कर के अपनी गोचरी-यात्रा में उपस्थित हुआ सम्पूर्ण दृश्य उनके सन्मुख अपने शब्दों में उपस्थित किया। तदनन्तर जिज्ञासु भाव से गौतम स्वामी ने भगवान् के सन्मुख उपस्थित हो कर उस वध्य पुरुष के पूर्वभव के विषय में पूछा। ___यहां पर सन्देह होता है कि गौतम स्वामी स्वयं चतुर्दशपूर्व के ज्ञाता और चार ज्ञानमति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव के धारक थे, ऐसी अवस्था में उन्होंने भगवान् से पूछने का क्यों यत्न किया ? क्या वे उस व्यक्ति के पूर्वभव को स्वयं नहीं जान सकते थे? .. इस विषय में आचार्य अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र श० 1 उद्दे० 1 में स्वयं शंका उठा कर उस का जो समाधान किया है, उसका उल्लेख कर देना ही हमारे विचार में पर्याप्त है। आप लिखते हैं "-अथ कस्माद् भगवन्तं गौतमः पृच्छति ? विरचितद्वादशाङ्गतया, विदितसकलश्रुतविषयत्वेन, निखिलसंशयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य, आह च __संखाइए उ भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेज्जा। ण य णं अणाइसेसी वियाणइ एस छउमत्थो॥१॥इति नैवम् उक्तगुणत्वेऽपि छद्मस्थतयाऽनाभोगसंभवाद्, यदाह 1. छाया-शैक्षोऽशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा प्रतिगृह्य तत्पूर्वमेव शैक्षतरकस्योपदर्शयति पश्चाद् रात्निकस्याशातना शैक्षस्य। 2. उज्जुष्पन्नो अणुव्विग्गो, अवक्खित्तेण चेअसा। आलोए गुरुसगासे जं जहा गहियं भवे। 90 // (दशवैकालिक सू० अ० 5 0 1) 3. संख्यातीतांस्तु भवान् कथयति यद् परस्तु पृच्छेत् / न चानतिशेषी विजानात्येष छदास्थः॥१॥ 262 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय ' [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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