________________ "किंनामए वा किंगोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरित्ता केसिं वा पुरा पोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं-" इन पदों का ग्रहण करना। इन पदों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। __ समुदान-शब्द का कोषकारों ने "-भिक्षा , या 12 कुल की, या उच्च कुल समुदाय की गोचरी-भिक्षा-" ऐसा अर्थ लिखा है। परन्तु आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पिण्डैषणाध्ययन के द्वितीय उद्देश में आहार-ग्रहण की विधि का वर्णन बड़ा सुन्दर किया गया है। वहां लिखा है ___साधु, (1) उग्रकुल, (2) भोगकुल, (3) राजन्यकुल, (4) क्षत्रियकुल, (5) इक्ष्वाकुकुल, (6) हरिवंश कुल, (7) गोष्ठकुल, (8) वैश्यकुल, (9) नापितकुल, (10) वर्धकिकुल, (11) ग्राम रक्षककुल, (12) तन्तुवायकुल, इन कुलों और इसी प्रकार के अन्य अनिन्द्य एवं प्रामाणिक कुलों में भी भिक्षा के लिए जा सकता है। सारांश यह है कि अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी ग्रहण की गई भिक्षा को समुदान कहते हैं। तथा "भिक्षा लाकर दिखाना" इस में विनय सूचना के अतिरिक्त शास्त्रीय नियम का भी पालन होता है। गोचरी करने वाले भिक्षु के लिए यह नियम है कि भिक्षा ला कर वह सबसे प्रथम पूजनीय रात्निक रत्नाधिकं ज्ञान, दर्शन और चारित्र में श्रेष्ठ, अथवा साधुत्व-प्राप्ति की अवस्था से बड़ा, दीक्षा-वृद्ध को दिखावे, अन्य को नहीं। दूसरे शब्दों में साधु गृहस्थों से साधुकल्प के अनुसार चारों प्रकार का भोजन एकत्रित कर सर्व प्रथम रत्नाधिक को ही दिखाए / यदि वह गुरु आदि से पूर्व ही किसी शिष्य आदि को दिखाता है तो उसको आशातना लगती है। कारण कि ऐसा करना विनय-धर्म की अवहेलना करना है। आगमों में भी यही 1. स्थानांग आदि सूत्रों में निर्ग्रन्थ-साधु को नौ कोटियों से शुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान लिखा है। नौ कोटियां निनोक्त हैं (1) साधु आहार के लिए स्वयं जीवों की हिंसा न करे, (2) दूसरे द्वारा हिंसा न कराए (3) हिंसा करते हुए का अनुमोदन न करे अर्थात् उस की प्रशंसा न करे, (4) आहार आदि स्वयं न पकावे, (5) दूसरे से न पकवावे, (6) पकाते हुए का अनुमोदन न करे, (7) आहार आदि स्वयं न खरीदे, (8) दूसरे को खरीदने के लिए न कहे, (9) खरीदते हुए किसी व्यक्ति का अनुमोदन न करे। ये समस्त कोटियां मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से ग्रहण करनी होती हैं। 2. "आयः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणः तस्य शातना-खण्डना इत्याशातना" अर्थात् - जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास अथवा भंग होता है उस को आशातना कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो-अविनय या असभ्यता का नाम आशातना है-यह कहा जा सकता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [261