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________________ शब्द सामान्य विचार के लिए प्रयुक्त होता है। "-अहो णं इमे पुरिसे जाव निरय-" इस वाक्य में पठित "-जाव-यावत्-" पद से "-अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ, न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे निरय-पडिरूवियं वेयणं वेएइ त्ति कट्ट" इस समग्रपाठ का ग्रहण करना। इस पाठ की व्याख्या प्रथम अध्ययन में कर दी गई है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। "-मझमझेणंजाव पडिदंसेइ-" यहां पठित "-जाव यावत्-" पद से "निग्गच्छति 2 त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता एसणमणेसणे आलोएइ 2 त्ता भत्तपाण-इन पदों का ग्रहण समझना।''इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है- .. वाणिजग्राम नगर के मध्य में से हो कर निकले, निकल कर जहां भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर आए, आकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट बैठ कर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया अर्थात् आने और जाने में होने वाले दोषों से निवृत्ति की। तदनन्तर एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) आहार की आलोचना (विचारणा अथवा प्रायश्चित के लिए अपने दोषों को गुरु के सन्मुख निवेदन करना) की, तदनन्तर भगवान वीर को आहार-पानी दिखाया। "-तहेव जाव वेएति-" यहां पठित "-तहेव-तथैव-" पद का अभिप्राय है - भगवान से आज्ञा लेकर जैसे अनगार गौतम बेले के पारणे के लिए गए थे इत्यादि वैसा कह लेना अर्थात् गौतम स्वामी भगवान् से कहने लगे-प्रभो ! आप की आज्ञा लेकर मैं वाणिजग्राम नगर के उच्च, नीच और मध्य सभी घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करता हुआ राजमार्ग पर पहुंच गया, वहां मैंने हाथी देखे इत्यादि वर्णन जो सूत्रकार पहले कर आए हैं उसी का तथैव-वैसे ही, इस पद से अभिव्यक्त किया गया है। और "-जाव-यावत्-" पद से वर्णक-प्रकरण को संक्षिप्त किया गया है। वह वर्णक पाठ निम्नोक्त है "-नयरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव ओगाढे, तत्थ णं बहवे हत्थी पासति सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिते-से लेकर -अहो-णं इमे परिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं-" यहां तक के पाठ का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या इसी अध्ययन के पृष्ठों में पीछे कर दी गई है। "-आसि 1 जाव पच्चणुभवमाणे-" यहां पठित "-जाव-यावत्-" पद से 260 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - . [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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