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________________ चला जाएगा। मोक्ष में दुःख तो लेशमात्र भी नहीं है। वह तो आनंदस्वरूप है। वहां पर आत्मानुभूति के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार की दुःखानुभूति को स्थान नहीं है। अतः मोक्षाभिलाषी जीवों के लिए यह परम आवश्यक है कि वे इस सारगर्भित सिद्धान्त का मनन करें और उस को यथाशक्ति आचरण में लाने का उद्योग करें। भगवान् की इस मर्मस्पर्शी देशना को सुन कर नागरिक लोग और महाराज अदीनशत्रु आदि जनता भगवान् को वन्दना तथा नमस्कार करके नगर को वापिस चली गई। विश्ववन्द्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में उन के आज के उपदेश का विचारपूर्वक मनन करने और उस के अनुसार आचरण करने वालों में से एक सुबाहुकुमार का ही इतिवृत्त हमें उपलब्ध होता है। शेष श्रोताओं के मन में क्या-क्या विचार उत्पन्न हुए और उन्होंने किस सीमा तक भगवान् के सदुपदेश को अपनाया या अपनाने का यत्न किया, इस का उत्तर हमारे पास नहीं है। हां ! सुबाहुकुमार जी के जीवन पर उस का जो प्रभाव हुआ, वह हमारे सामने अवश्य उपस्थित है। भगवान् की इस धर्मदेशना से सुबाहुकुमार के हृदयगत उन विचारों को बहुत पुष्टि मिली जो कि उस ने तेले की तपस्या करते समय अपने हृदय में एकत्रित कर लिए थे। अब उसने अपने उन संकल्पों को और भी दृढ़ कर लिया और वह शीघ्र से शीघ्र उन्हें कार्यान्वित करने के लिए उत्सुक हो उठा। तदनन्तर वह विधिपूर्वक वन्दना, नमस्कार करके भगवान् के चरणों में बड़े विनीतभाव से इस प्रकार बोला प्रभो ! आपश्री जब यहां पहले पधारे थे, तो उस समय मैंने अपने आप को मुनिधर्म के लिए असमर्थ बतलाया था और तदनुसार आप से श्रावकोचित अणुव्रतों का ग्रहण कर के अपने आत्मा को सन्तोष दिया था। वास्तव में ही उस समय मैं मुनिधर्म का यथाविधि पालन करने में असमर्थ था। परन्तु अब मैं आपश्री के असीम अनुग्रह से अपने आप को मुनिधर्म के योग्य समझता हूँ। अब मुझ में मुनिधर्म के पालन करने का सामर्थ्य हो गया है, ऐसा मैं अनुभव करता हूँ। इसलिए कृपा करके मुझे मुनिधर्म में दीक्षित करके अपने चरणों में निवास करने का सुअवसर प्रदान करने का अनुग्रह करें, यही आपश्री के पुनीत चरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है। आशा है कि आप इसे अवश्य स्वीकार करेंगे। तदनन्तर सुबाहुकुमार फिर बोले-भगवन् ! मैंने अपने दूर तथा निकट के सांसारिक सम्बन्धों पर अपनी बुद्धि के अनुसार खूब विचार कर लिया है। विचार करने के अनन्तर मैं 1. भगवान् की धर्मदेशनारूप सुधा का विशेषरूप से पान करने वालों को श्री औपपातिक सूत्र का धर्मदेशनाधिकार देखना चाहिए। 922 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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