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________________ इसी परिणाम पर पहुंचा हूँ कि संसार में धर्म के अतिरिक्त इस जीव का कोई रक्षक नहीं है। माता, पिता, भाई और बहन तथा पुत्रकलत्रादि जितने भी सम्बन्धी कहे व माने जाते हैं, वे अपने अपने स्वार्थ को लेकर सम्बन्ध की दुहाई देने वाले हैं। समय आने पर कोई भी किसी का साथ नहीं देता। साथ देने वाला तो एकमात्र धर्म है। प्रभो ! अब मैं चाहता हूँ कि जिन कष्टों को मैं अनन्त बार सह चुका हूँ, उन से किसी प्रकार छुटकारा प्राप्त कर लूं। दीनबन्धो! मेरी धर्म पर जैसी अब आस्था है वैसी पहले भी थी, किन्तु उस को आचरण में लाने का इस से पूर्व मुझे बल नहीं मिला था। अब आप श्री की कृपा से वह मिल गया है। अब अगर इस सुअवसर को हाथ से खो दूं तो फिर यह मुझे प्राप्त होने का नहीं है और इसे खो देना मेरी नितान्त मूर्खता होगी। इसलिए मुझे अब मुनिधर्म में दीक्षित करने की शीघ्र से शीघ्र कृपा करें। इस के लिए यदि माता-पिता की आज्ञा अपेक्षित है तो मैं उसे प्राप्त कर लूंगा।"-जैसे तुम को सुख हो, वैसा करो, परन्तु विलम्ब मत करो-" भगवान् के इन वचनों को सुन कर प्रसन्नचित्त हुआ सुबाहुकुमार भगवान् की विधिपूर्वक वन्दना-नमस्कार करने के अनन्तर जिस रथ पर आया था, उसी पर सवार हो कर माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करने के लिए अपने महल की ओर चल दिया। -अज्झत्थियं जाव वियाणित्ता-यहां पठित जाव-यावत् पद से-चिंतियं, कप्पियं, पत्थियं, मणोगयं, संकप्पं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ पीछे यथास्थान लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त / अतः अर्थ में द्वितीयान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिए। - -महया जहा पढमंतहा णिग्गओ-ये शब्द सूत्रकार की इस सूचना को सूचित करते हैं कि प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन किया गया था कि भगवान् महावीर स्वामी नगर में पधारे तो उस समय सुबाहुकुमार बड़े वैभव के साथ जमालि की तरह भगवान के दर्शनार्थ नगर से निकला, इत्यादि विस्तृत वर्णन न करते हुए सूत्रकार ने संकेत मात्र कर दिया है कि सुबाहुकुमार जैसे पहले बड़े समारोह के साथ भगवान् के चरणों में उपस्थित होने के लिए आया था, उसी प्रकार अब भी आया। ___-हद्वतद्धे जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छइ,णिक्खमणाभिसेओ तहेव जाव अणगारे जाए-इस पाठ से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि सुबाहुकुमार का धर्म सुन कर प्रसन्न होना तथा दीक्षार्थ माता-पिता से पूछना, निष्क्रमणाभिषेक इत्यादि सभी बातें मेघकुमार के समान जान लेनी चाहिएं, तथा दीक्षार्थ निष्क्रमण और अनगारवृत्ति का धारण करना आदि भी उसी के समान जान लेना चाहिए। मेघकुमार का जीवनवृत्तान्त श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [923
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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