________________ मांगलिक विचार प्रश्न-प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गलाचरण करना आवश्यक होता है; यह बात सभी आर्य प्रवृत्तियों तथा विद्वानों से सम्मत है। मङ्गलाचरण भले ही किसी इष्ट का हो, परन्तु उस का आराधन अवश्य होना चाहिए। सभी प्राचीन लेखक अपने-अपने ग्रन्थ में मंगलाचरण का आश्रयण करते आए हैं। मंगलाचरण इतना उपयोगी तथा आवश्यक होने पर भी विपाकसूत्र में नहीं किया गया, यह क्यों ? अर्थात् इसका क्या कारण है ? उत्तर-मंगलाचरण की उपयोगिता को किसी तरह भी अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, परन्तु यह बात न भूलनी चाहिए कि सभी शास्त्रों के मूलप्रणेता श्री अरिहन्त भगवान् हैं। ये आगम उनकी रचना होने से स्वयं ही मंगलरूप हैं। मंगलाचरण इष्टदेव की आराधना के लिए किया जाता है, परन्तु जहां निर्माता स्वयं इष्टदेव हो वहां अन्य मंगल की क्या आवश्यकता है? प्रश्न-यह ठीक है कि मूलप्रणेता श्री अरिहन्त भगवान् को मंगलाचरण की कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु गणधरों को तो अपने इष्टदेव का स्मरणरूप मंगल अवश्य करना ही चाहिए था? उत्तर-यह शंका भी निर्मूल है। कारण कि गणधरों ने तो मात्र श्री अरिहन्त देव द्वारा प्रतिपादित अर्थरूप आगम का सूत्ररूप में अनुवाद किया है। उन की दृष्टि में तो वह स्वयं ही मंगल है। तब एक मंगल के होते अन्य मंगल का प्रयोजन कुछ नहीं रहता, अतः श्री विपाकश्रुत में मंगलाचरण नहीं किया गया। . प्रस्तुत टीका के लिखने का प्रयोजन यद्यपि विपाकश्रुत के संस्कृत, हिन्दी, गुजराती और इंगलिश आदि भाषाओं में बहत से अनुवाद भी मुद्रित हो चुके हैं, परन्तु हिन्दीभाषाभाषी संसार के लिए हिन्दी भाषा में एक ऐसे अनुवाद की आवश्यकता थी जिस में मूल, छाया, पदार्थ और मूलार्थ के साथ में विस्तृत विवेचन भी हो। जिन दिनों मेरे परमपूज्य गुरुदेव प्रधानाचार्य श्री श्री 1008 श्री आत्माराम जी महाराज श्रीस्थानांग सूत्र का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे, उन दिनों मैं आचार्य श्री के चरणों में श्री विपाकश्रुत का अध्ययन कर रहा था। विपाकश्रुत की विषयप्रणाली का विचार करते हुए मेरे हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या ही अच्छा हो कि यदि पूज्य श्री के द्वारा अनुवादित 1. मंगलम् इष्टदेवतानमस्कारादिरूपम्, अस्य च प्रणेता सर्वज्ञस्तस्य चापरनमस्का-भावान्मंगलकरणे प्रयोजनाभावाच्च न मंगलविधानम्। गणधराणामपि तीर्थकृदुक्तानुवादित्वान्मगलाकरणम्। अस्मदाद्यपेक्षया तु सर्वमेव शास्त्रं मंगलम्।- सूत्रकृतांग सूत्रे-शीलांकाचार्याः 80 ] श्री विपाक सूत्रम् . . [प्राक्कथन