________________ मुनिधर्म को स्वीकार करने में प्रभु-समर्थ होगा कि नहीं ? यह था प्रश्न जो गौतम स्वामी ने भगवान् से किया था। गौतम स्वामी के इस प्रश्न में प्रयुक्त किए गए १-मुण्डित, २अनगारता, ३-प्रभु-ये तीनों शब्द विशेष भावपूर्ण हैं। ये तीनों ही उत्तरोत्तर एक-दूसरे के सहकारी तथा परस्पर सम्बद्ध हैं। इन का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है १-मुण्डित-यहां पर सिर के बाल मुंडा देने से जो मुण्डित कहलाता है, उस द्रव्यमुण्डित का ग्रहण अभिमत नहीं, किन्तु यहां भाव से मुण्डित हुए का ग्रहण अभिप्रेत है। जिस साधक व्यक्ति ने सिर पर लदे हुए गृहस्थ के भार को उतार देने के बाद हृदय में निवास करने वाले विषयकषायों को निकाल कर बाहर फैंक दिया हो वह भावमुण्डित कहलाता है। श्रमणता-साधुता प्राप्त करने के लिए सबसे प्रथम बाहर से जो मुंडन कराया जाता है वह आन्तरिक मुंडन का परिचय देने के लिए होता है। यदि अन्तर में विषयकषायों का कीच भरा पड़ा रहे तो बाहर के इस मुंडन से श्रमणभाव-साधुता की प्राप्ति दुर्घट ही नहीं किन्तु असम्भव भी है। इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि "-'न वि मुंडिएण समणो-" अर्थात् केवल सिर के मुंडा लेने से श्रमण नहीं हो सकता, पर उसके लिए तो भावमुंडितविषयकषाय रहित होने की आवश्यकता है। तब गौतम स्वामी के पूछने का भी यह अभिप्राय है कि क्या श्री सुबाहुकुमार भाव से मुंडित हो सकेगा? तात्पर्य यह है कि द्रव्य से मुंडित होने वालों, बाहर से सिर मुंडाने वालों की तो संसार में कुछ भी कमी नहीं। सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों ही निकल आएं तो भी कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, परन्तु भाव से मुण्डित होने वाला तो कोई विरला ही वीरात्मा निकलता है। २-अनगारता-गृहस्थ और साधु की बाह्य परीक्षा दो बातों से होती है। घर से और ज़र से। ये दोनों गृहस्थ के लिए जहां भूषणरूप बनते हैं वहां साधु के लिए नितान्त दूषणरूप हो जाते हैं। जिस गृहस्थी के पास घर नहीं वह गृहस्थी नहीं और जिस साधु के पास घर है वह साधु नहीं। इस लिए मुण्डित होने के साथ-साथ घर सम्बन्धी अन्य वस्तुओं के त्याग की भी साधुता के लिए परम आवश्यकता है। वर्तमान युग में घरंबार आदि रखते हुए भी जो अपने आप को परिव्राजकाचार्य या साधुशिरोमणि कहलाने का दावा करते हैं, वे भले ही करें, परन्तु शास्त्रकार तो उस के लिए (साधुता के लिए) अनगारता (घर का न होना) को ही प्रतिपादन 1 उत्तराध्ययनसूत्र अध्याय 25, गा० 31 / तथा श्री स्थानाङ्ग सूत्र में भी इस सम्बन्ध में लिखा है दस मुंडा पं० तंजहा-सोइन्दियमुंडे जाव फासिंदियमुण्डे, कोह जाव लोभमुण्डे सिरमुण्डे। 2. यहां पर घर शब्द को स्त्री, पुत्र तथा अन्य सभी प्रकार की धन सम्पत्ति का उपलक्षण समझना चाहिए। 904 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध